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________________ प्रतिसंलीनता तप जैन आचार्यों ने आत्मा के तीन प्रकार बताये हैं तिपयारो सो अप्पा परमंतर बाहिरो दु हेऊणं ।' परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा । इन्द्रिय एवं विषयों में आसक्त आत्मा-बहिरात्मा है। उसका केन्द्र .. वाह्य पदार्थ होते हैं। अन्तरंग में आत्म संकल्प-अर्थात् अपने भीतर में ही लीन, अन्तर में स्थित होना अन्तरात्मा है। अन्तरात्मा का केन्द्र-ज्ञान दर्शन रूप आत्म शक्ति है। कर्म मल से सर्वथा मुक्त आत्मा-परमात्मा है । बहिरात्मा--संसारमुखी रहता है। भोग विलास, भादि विषय तथा क्रोध, मान आदि कपायों में सदा लीन रहने वाला आत्मा असंयमी तथा संसारासक्त कहलाता है । संसारासक्त आत्मा सदा पतन एवं विनाश की ओर ही बढ़ता रहता है। उस संसारोन्मुखी आत्मा को बाहर से मोड़कर अन्तर १ आचार्य कुन्दकुन्द-मोक्ष प्राभृत ६५
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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