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________________ कायक्लेश तप यदि कायक्लेश की विशेष साधना करना चाहे तो साधक मन को इतना मजबूत करलें कि खाज आये तब भी खाज नहीं करें। इसी प्रकार थूके भी नहीं। परिकर्म और विभूषा कायक्लेश का तेरहवां भेद है-गात्र परिकर्म का त्याग-परिकर्म का अर्थ है--शरीर की साज सज्जा आदि । परिकर्म और विभूपा में वैसे तो कोई विशेष अन्तर नहीं है, किन्तु फिर भी दो शब्द हैं, और दोनों की भावना में अन्तर भी है । परिकर्म से शरीर की साज सज्जा के ये रूप लिये जाते हैं -- जैसे शरीर को पुष्ट बनाने के लिए विरेचन आदि लेना, वमन करना, नख केश आदि काटना, आँखों का मैल निकालना, दतौन करना आदि। और विभूपा से स्नान करना, कपड़ों को ज्यादा उजला धोना, रंगना, आँखों में अंजन (काजल) लगाना आदि । ब्रह्मचारी साधक के लिए ये सभी कर्म अहितकारी हैं । जैसा कि पीछे भी बताया गया है-- • विभूपा, स्त्री संसर्ग, और प्रणीतरस भोजन-ये तीनों आत्म-गवेषक के लिए तालपुट जहर के समान है। विभूपा करने वाला साधक संयम से भ्रष्ट होकर बड़े चिकने कर्म बांधता है विभूसा वत्तियं भिक्खु फम्मं बंधइ चिक्कणं' संयम से भ्रष्ट होने के अठारह कारणों में स्नान एवं विभूपा को भी दो मुख्य कारण माने हैं, अतः परिकर्म और विभूपा-सामान्य साधु जीवन के लिए भी वर्जनीय है। क्योंकि बताया गया है, साधु शरीर को नहीं, आत्मा को संवारता है, आत्मा का सौन्दर्य निखारने में ही वह जीवन भर जुटा रहता है । वही उसका अपना है । शरीर तो जड़ है, यदि शरीर की सुन्दरता पर ध्यान देना होता तो फिर संसार क्यों छोड़ता । शरीर की शोभा विभूषा करने का अर्थ है - भोगविलास की कामना करना । यह तो साधु के पतन का मागं है। १ दशवकालिक ६१६६ २ दशवकालिक ६८
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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