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________________ जैन धर्म में प २८६ वचन कहने से, यथा योग्य भोजन वस्त्र आदि देने से वह प्रसन्न रहता है, और स्वामी की सेवा करने में जी जान लगा देता है । स्वामी के लिए अपने प्राण और सर्वस्व न्योछावर कर देता है । जो सेवक सब कुछ पाकर भी मंदि स्वामी की सेवा में हिनकिचाहट करे, काम से मुँह पुराए तो यह सेव बेइमान कहलाता है | शरीर भी आत्मा का सेवक है, आत्मा को धर्म की साधना करने में उपयोगी है- "यह देह धर्म का साधन है" और 'मोक्य साहन हेरम साहूदेहस्स धारणा - मोक्ष की साधना करने के लिए ही साधक देह को धारण करता है । अत: बात्मा मोक्ष साधना के लिए शरीर का उपयोग करता है. शरीर का पोषण भी करता है, किन्तु उसे निलले बैठाए रखने के लिए नहीं, किन्तु अधिक श्रम, त्याग, तप, जप ध्यान कायोत्सर्ग आदि करने के लिए हो उसे भोजन देता है । शरीर से यह जो आध्यात्मिक सेवा तो जाती है. उसे ही हम बोलचाल की भाषा में कायक्लेश और कष्ट एवं परोप कहते हैं. वास्तव में यह कष्ट एवं क्लेश नहीं, किन्तु शरीर का सदुपयोग है । सच्चा सेवक सेवा करने में सिन अवशय होता है, किन्तु फिर भी यह निता अनुभव नहीं करके प्रसन्नता का ही अनुभव करता है। सेवा की कष्ट नहीं, कर्तव्य है। इसी प्रकार आत्मसाधना के मार्ग में शरीर को दिया जाने चाला राष्ट वास्तव में कष्ट नहीं, किन्तु शरीर का उपयोग है । उपयोग नही दिया जाता है तो शरीर बैठा ठाया और कुछ उत्पात कर है। विकारों की उप करेगा। पर 学 सिया करे। अतः शरीर को तय श्रम में, तप जप आदि में लगाए को एक पति है। इसमें जैन धर्म में शरीर को यात गरी का नाश करने के लिए नही कही है, बरने के लिए ही कहाँ है। के महान प दुगने बाह--मनुष्य की साम को बार मामले दाई देती है, पर मन देता है, अपनों को मार हा दावा है तो स्वयं भी यह
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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