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________________ जैन धर्म में तप के समान है। तालपुट जहर जैसे जीभ पर रखकार ताली बजाये तब तक में मनुष्य को मार डालता है, उसी प्रकार आत्मशोधक के लिए उक्त तीनों. . या विनाशकारी हैं। ब्रह्मचर्य की नव गुप्तियों में बताया गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधक को प्रणीत .. अतिस्निग्ध सरस आहार नहीं करना नाहिए १ नो पणीयरतभोइ भयइ २ नो पाण भोयणस्स मइ मायाए आहारइता भवः आगम बाणी के प्रकाश में और अपने अनुभव के आलोक में यह बात प्रायः स्पष्ट है कि इंधन से जैसे अग्नि प्रचंड बनती है, वैसे ही सरस भोजन से मामाग्नि प्रचंड होती है। अतः मात्मसाधना करने वाले, महान यं का पालन करने वाले साधक के लिए सचमुच में ही रसयुक्त प्रपीत भोजन --विप के तुल्य हैं। निशोथ भाप्य में एक उदाहरण देकर समझाया गया है कि रम लोनुर होने से लाधु का यह भव ही नहीं, किन्तु अगला भव भी बिगड़ जाता है। उदाहरण इन प्रकार है प्राचीन समय में एक प्राचार्य धे-~-आर्य मंगु । नामों के अच्छे l और बई ही मधुर वक्ता थे। जहां भी जाते यहां उनका अच्छा सरकार सम्मान होता । जनता में उनके प्रति बड़ी अक्षा थी। पलवार आमंग मधुना में भागे। मथुरा के भानु जनों ने बाला । ही वही भक्तिी आना को दूध, दही, घी मिष्टान आदि प्रतिदिन दिन ' .. गा। प्रतिदिन मा गोजन करने में आनाका मननी में पन्न हो गया। मधुर भोजन आदि के कारण के गथरा भी सामने गी। अब सो आना जम गये। माम कला पूजाने पर भी विदार 1; मा भनित लोगों में भी उनी । मामा STATE पिर भी माना जाने को नहीं
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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