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________________ जैन धर्म में तप आचार्य कुंद कुंद ने भी यही बात कही है कि जो श्रमण भिक्षा में दोष रहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह आहार ग्रहण करता हुआ भी निश्चय दृष्टि से अपाहार (तपस्वी) कहा जाता हैअण्णंभिक्ख मणेतणमध ते. समणा अणाहारा।'. भिक्षा कसे ? भिक्षानरी के प्रसंग में हमने भिक्षा की विधि, नियम और उसके महत्त्व पर तो विचार कर लिया है, अब एक बात और इस प्रसंग पर विचारणीय है कि शिक्षा कैसे दी जानी चाहिए ? नागमों में बताया गया है कि जो दान त्रिकरण शुद्ध होता है, वहीं महान फल देने वाला होता है। दान को तीन मुन्य अंग है-- दन्न सुद्धणं-द्रव्य वस्तु शुद्ध हो, दायग सुद्धणं-दाता की भावना शुद्ध हो, पडिग्गाहग सुद्धणं-ग्रहण करने वाला शुद्ध हो, दान का अधिकारी हो! वस्तु निर्दोष हो, उद्गम उत्पादन आदि दोपों में रहित हो, तथा ग्रहण . . करने वाला पाय हो, वह सच्चा त्यागी हो, और अपनी विधि के साथ नियमों . के अनुल मिक्षा ग्रहण करें, तथा दाता की भावना पवित्र हो, निष्काम : . . भाव से वह दान देवें । तभी यह दान शुख शाहलाता है। . . . . . . वस्तु, दाता, एवं पान के सम्बन्ध में हमने पूर्व में काफी गिरतार में बताया है। अब यहां एक बात और रह गई है कि माता जय भिक्षा को पर पर माया देगे तो नसे. किस प्रकार उसका स्वागत करें! गारगों में स्थान-स्थान पर ऐनी पटना आती है जहां कोई श्रम मात्र के पार माहारी पणा नारता मापनमा है दहस्य बमण को घर पर आग देवकर पिता , उनका रो-रोग नापने ना ! २ मा समानताटा , आय ...
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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