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________________ भिक्षाचरी तप -२५६ १८ पृष्टलाभिए - दाता पूछे कि आपको किस वस्तु की इच्छा है, ऐसा प्रश्न करने पर आहार ग्रहण करना । १९ अपृष्ट लानिए- किसी भी प्रकार का प्रश्न नहीं पूछने वाले से आहार ग्रहण करना | २० भिक्षा लाभिक - भिक्षु को देने योग्य आहार मिलने पर लेना । २१ अभिक्षा लाभिक-सामान्य भोजन योग्य आहार मिलने पर लेना | २२ अन्यलायक- दूसरे रोगी के लिए लेना । २३ ओपनिधिक- अन्य स्थान में काया हुआ बहार लेना । २४ परिमित पिष्टपातिक-परिमित आहार लेना । पणिक- निर्दोष आहार देना | २५. २६ संवत्तिक पति की संख्या निश्चित करके, जैसे---जावनी दति वा आहार आदि को गवेषण करना । करने के अग्रह इसमें एक दति, दति यावत् ददति किये जाते है। जिन्हें प्रतिमा भी कहा जाता है।" यता है कि ही बताया गया है. फिर गृहस्य उत्तर है कि इन अभियो में कुछ भी कर सकता है। तप तो मुख्यतः माधु को लक्ष्य पर स तप की सेकता है ? अभियह ऐसे है जो की भािं 1 घर में भिक्षा के लिए जाता है गृहस्य अपने पर में बैठा हुआ मनको साधना कर है -- "वाली में एक बार जितना परोग दिया गया उतना ही गोड" अपन अपुष्ट वार्षिक आरि नहीं गाना " गुदा को गुरु यदि मन में वर्ष की भावना है उस विशेष की और भोजन का संपोनेमे for है। after ही है जो नियम सांप १० अधिक 7 चेक योग में भी अन है।
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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