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________________ मिक्षाचरी नप २४३, . कार्य में कुछ भी तपस्या नहीं करनी पड़े, मन, वचन आदि का संयम व निग्रह करने का अवसर भी न आये वह कार्य 'तप' कैसे हो सकता है ? वैदिक परम्परा में तो आधाकर्म, औद्देशिक आदि जैसे शब्द भी नहीं मिलते हैं, किन्तु बौद्ध परम्परा जो कि श्रमणों की ही एक परम्परा है और भगवान महावीर के समय में हो जिसका विकास विस्तार हुमा, उसमें भी ऐसे नियम नहीं हैं । बौद्ध ग्रन्थों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि वहां भी भिक्षु के लिए बनाया हुआ, खरीदा हुआ, लाया हुमा, नादि आहार ग्रहण किया जाता था। एक बार सिंह सेनापति ने बुद्ध को संघ सहित निमंमित किया था और बाजार से मरे हुए पशुओं का मांस मंगवाचार उन्हें भोजन दिया था। इसी प्रकार का एक और उल्लेख है कि एक तरुण श्रद्धालु महामात्य ने बुद्ध सहित भिक्षा संघ को निमंत्रण दिया । युद्ध के साथ साड़े बारह सौ भिक्ष, ये मत: उसने लादे बारह सौ गालियां तैयार करवाई और आने पर प्रत्येका भिमा को एस-एक बानी परोसी । इन संदर्भो से मात होता है कि बौद्ध भिक्षा आधाकर्म, औद्दे शिका, अभिहत आदि दोषों को नहीं टालते थे। भिक्षा के विषय में इतना गहरा और सूक्ष्म चिंतन सिर्फ जैन धर्म में ही किया गया है। भिधा के विषय में सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा को नहीं टाला गया है । यहां तक कि भिक्ष, के निमित्त बनाया दबा तो दूर, किन्तु अपने लिये बनाये हुए भोजन में यदि को हिस्सेदार हो, उनमें से एक मोठा हो कि मैं मुनि को भिक्षा। यह मुनि से माना गरे कि.महाराज ! भिक्षा लीजिए। किन्तु मूसा यदि देना ने . पानोर उनका मन भिक्षा देने में पाप पाता हो तो मुनि को पाहिए हि यह बार भी न लें । महिऐगा करने से एक के बाद में लोग, भपक्षा पपीता को भी है, जो कि हा प्रकार की महिमा की। mom 1 f ire, ream २ Fram feer : मान १८२४४ ५, पुष्ट २६५
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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