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________________ kayin जैन धर्म में तप I... मधुर आहार की आवश्यकता होने पर रूखा सूखा नीरस ! किन्तु साधु उसी में संतोष करता है, अपनी इच्छा का, वृत्ति का संकोच करता है, मन का तथा स्वादेन्द्रिय का निग्रह करता है, जैसा भी मिल गया उसी में संतुष्ट होता है मन इच्छित वस्तु के न मिलने पर शोक नहीं करता - ल पिण्डे अलद्ध वा णाणु तप्पेज्ज पंडिए ' इस प्रकार उसे अपनी वृत्तियों का कठोर संयम करना होता है. इस कारण इसे 'वृत्ति संक्षेप' भी कहा है । वास्तव में भिक्षा एक पराश्रित चर्या है, दूसरे की इच्छा और रात्रि के अनुसार बने भोजन में ही स्वयं को प्रसन्न रखना होता है, इसमें स्वादविजय की साधना करनी होती है । भिक्षावृत्ति का उद्देश्य भी यही है कि रसइच्छा - ( स्वादवृत्ति को जीत कर जीवन यात्रा करना: जायाए घासमेसेज्जा रस गिद्ध न सिया । २३६ रस को आसक्ति छोड़कर संयम यात्रार्थं आहार की गवेषणा करे, उस कारण इसका 'वृत्तिसंक्षेप' नाम भी सार्थक है । नव फोटि परिशुद्ध भिक्षा यह बताया जा चुका है कि भिक्षा गाय के समान समभाव पूर्वक और मधुकर के समान दूसरों को बिना कष्ट दिये अल्प रूप में ग्रहण करनी चाहिए। तथा स्वादविजय करके ही भिक्षाटन के लिए निकलना चाहिए। इस प्रकार जैन धर्म में भिक्षा को बहुत ही आदर्श, विशुद्ध और पूर्ण अहिंसक रूप में प्रस्तुत किया गया है। भगवान महावीर ने कहा है कि-- भिक्षु को ऐसी भिक्षा लेनी चाहिए जो नवकोटि परिशुद्ध हो, अर्थात् पूर्ण रूप से महि हो, भिक्षू, भोजन के लिए न स्वयं जीवहिंसा करें, न करवाएं और न करते हुए का अनुमोदन करें । न वह स्वयं अन्न आदि पकाये, न पवाए और न ते हुए का अनुमोदन करे तथा न स्वयं मोल लें, न लिवाए और न लेने या का अनुमोदन करें। इन विधियों से विशुद्ध अर्थात् निर्दोष जो भिक्षा १ उत्तराध्ययन १३० ફ્ उतराध्ययम १११ गोष्टि परिमुळे नित..... स्यानांग दा San
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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