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________________ २३२ जैन धर्म में तप सकती है ? और आश्चर्य की बात तो यह है आज कल ऐसे पुरुषत्व हीन मांगखोर व्यक्ति संसार में जिधर देखो उधर ही फैले हुए दिखाई देंगे। बड़ेबड़े शहरों में तो मांगना भी एक व्यवसाय बन गया है। सुबह से शाम तक मांग कर कोई पांच रुपये कमा लेता है, कोई दस ! ऐसे मंगते पेट भर कर खाते भी नहीं, मांग-मांग कर जमा करते जाते हैं। तो इस प्रकार की भिक्षा - वृत्ति 'पौरुपघ्नी भिक्षा' कहलाती है। भिक्षा का तीसरा रूप है-सर्वसम्पत्करी । जो त्यागी अहिंसक, संतोपी । श्रमण आदि अपने उदर निर्वाह के लिए माधुकरी वृत्ति से गृहस्थ के घर में सहज भाव से बना हुआ शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं, और आहार की निर्दोष विधि से उसे खाते हैं, उन मुनियों की भिक्षा-सर्वसम्पत्करी भिक्षा है अर्थात् वह 'भिक्षा देने वाले और ग्रहण करने वाले दोनों का ही कल्याण करने वाली है । 'सर्वसम्पत्करी' भिक्षा देने वाला, और लेने वाला-दोनों ही सद्गति में जाते हैं-वो वि गच्छंति सुग्गइ। भिक्षाचरी, जिसे तप कहा गया है, वह यही सर्वसम्पत्करी भिक्षा है । यह धर्म की आराधना करने वाली और मोक्ष की साधिका है। गोचरी और माधुरी "भिक्षाचरी' को शास्त्रों में कहीं-कहीं गोचरी 'माधुकारी और कहीं वृत्तिसंक्षेप' कहा गया है। ये सभी शब्द भिक्षावरी के उच्च बादशं को बताते हैं । उत्तराध्ययन, दशवकालिया, और आचारांग आदि आगमों में 'गोपर' शब्द का ही अधिक प्रयोग हुमा है । दशवकालिक में इसे गोगरग'-- . गोचरा' कहा है । मोनर शब्द का अर्थ है-गाय की तरह चरना, भिक्षाटन करना। - - १ दशवशालिग १०० २ दवालिय. ५॥१॥३ (स) उत्तरा ३०२५ ३ गोरिच करणं गोचर :--उत्तमाधममन्यमगुले प्यराताहिष्टम्म मिक्षा. टनं- हारिभद्रीय टोला, पत्र १६३ ।। (ग) गोरिख नरम गोपोनहा महादिसु अमुनियो-अगस्यमिदमूणि
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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