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________________ भिक्षाचरी तप २३१ फिर वह 'तप' या 'धर्म' कैसे हो सकती है ? भिक्षावरी 'तप' तभी हो सकती है जब वह नियम पूर्वक, पवित्र उद्देश्य से और शास्त्रसम्मत विधि-विधान के साथ ग्रहण की जाय ! 'भिक्षाचरी तप' में हमें भिक्षा के समस्त अंगों पर विचार करना है । शास्त्र में उसको क्या विधि है, क्या उद्देश्य है इस पर भी चिन्तन करना है ! भिक्षा के तीन भेद सकते हैं । पात्र और उद्देश्य की अपेक्षा से मिक्षा के अनेक भेद किये जा जैसे एक दरिद्र भिखारी भी रोटी मांगता है—घर पर घूमता है, और एक त्यागी तपस्वी श्रमण भी आहार की गवेषणा करता हुआ ऊंच-नीच कुलों में 'भ्रमण करता है, तो क्या इन दोनों को शिक्षा कभी एक कोटि में आ सकती है ? नहीं ! दोनों भिक्षुक होते हुए भी उनकी वृत्ति में आकाश पाताल का अन्तर है - जैसे- "आक दूध - गाय दूध अन्तर घनेरो है," आक के दूध में और गाय के दूध में महान अन्तर है, होरे और कांच के टुकड़े में बहुत बड़ा फर्क है वैसे ही इन भिक्षुकों को भिक्षावृत्ति में बहुत अन्तर है ! आचार्य हरिभद्र ने तीन प्रकार की भिक्षा बतलाते हुए कहा है सर्वसम्पत्री चंका पौरुपनी तथापरा । वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञं रिति भिक्षा प्रिपोदिता । 1 भिक्षा तीन प्रकार की है- दीनवृत्ति, पीपन और सम्प। जो नाव वर्षाग, आपस्त दरिद्र व्यक्ति मांगकर जाते है, वह न वृद्धि भिक्षा है। जो श्रम करने में राम होकर होकर भी काम से जी पुराकर भागकर गाते है, कमाने की शक्ति होते हुए भी मांग 'पोनी' भिक्षा है अर्थात् पुरात्य का नाश करने वाली है। ऐसे रामु में देश के भार है। जिनकी मांग को पट जाती है, और मांगने मे हो पेट भर जाता है ऐसे आदमी भी मत करना नहीं चाहते। मेगे बाद यह है--या मिले दाणा का करेगा ना ?" मांगने से हो जय पेट जाता हैवी चया की नया सरकार हमारा नया विवाह सदका प्रमाण
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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