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________________ कनोदरी तप २२६ उपसंहार तो कलह की भीषण लीला आज सर्व विदित है । उससे मानव जाति नष्ट हो जाती है । इसलिये भगवान ने साधक को उपदेश दिया है वह कलह को, परस्पर के झगड़े को शांत करे । शास्त्र में बताया है- साधर्मियों में परस्पर कलह हो जाने के बाद जब तक वापस क्षमा याचना न करे तब तक साधु को आहार पानी नहीं करना चाहिए । यदि तुरन्त क्षमा याचना न करे तो एक दिन में, पक्ष में, मास में, चातुर्मास में तथा अधिक से अधिक संवत्सरी पर तो परस्पर का कलह अवश्य ही शांत कर लें | यदि संवत्सरी पर भी कलह शांत नहीं होता तो उसकी साघुता और श्रावकपन तो क्या, किन्तु सम्यक्त्व भी नहीं रह सकती ! जो न उवसमद तस्स णत्थि आराहणा, नो उसम तस्स अत्यि आराहणा । जो कलह शांत नहीं करता वह धर्म की आराधना नहीं कर सकता, जो कलह को शांत करता है, मन की गांठें खोल देता है वही धर्म का आराधक हो सकता है | आप जानते हैं-मन में गांठ रखने वाला 'निर्ग्रन्थ' (श्रमण) नहीं हो सकता | तो मन को गांठें मिटाने के लिए, मन में प्रसन्नता जगाने के लिये, जीवन में धर्म की आराधना करने के लिये भाव कनोदरी के इस रूप की आराधना अत्यन्त आवश्यक है कि धक -अप्प क को गांव करें । - अल्प कलह वर्षात् इस प्रकार अनोद के हुए। इनकी सम्पए आराधना से जीवन में सगुन एक नया आनन्द प्राप्त हो सकता है। यह क जीवन और का जीवन दोनों ही सुना है । 3 इटवर आण १४
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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