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________________ ३२ जायामाय णिमितं । अक्खोवंजणाणलेवण नूयं संजम संजमभार वहणट्ठायाए मुंजेज्जा पाणधारणट्ठाए । इस आशय का कथन, अन्य अनेक आगमों में भी मिलता है। इसी प्रकार का कथन एक वैदिक आचार्य का भी है शरीरं व्रणवद् ज्ञेयं अन्नं च व्रणलेपनम् । 3 भोजन उस की जरूरत शरीर व्रण के समान है, और घाव को ठीक करने के लिए मरहम के बाद मरहम की कोई जरूरत नहीं, के लिए भोजन की जरूरत है, जब तब उसे भोजन देने की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती । पर मरहम की भांति है । रहती है, घाव ठीक होने इसी प्रकार शरीर से साधना करने शरीर साधना करने में समर्थन रहे जैन धर्म में तप आहार करने के छह कारण आहार के उद्देश्य पर सभी दृष्टियों से विचार करते हुए भगवान महावीर ने उसके छह कारण बताये है वेण वैयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तिपाए छट्ठं पुण धम्मचिताए । श्रमण भोजन करने से पहले यह विचार करे कि वह भोजन मि लिए कर रहा है ? उसके भोजन की आवश्यकता क्या है ? क्योंकि ये बातें हैं, जिनके लिए कि भोजन किया जाता है ३ ४ १ भगवती सूत्र ७११-२ तथा-रश्नव्याकरणगुन २११ २ (क) जायामावाइ जावए—आनारांग ३३ (स) नारस्त जागा गुणि भुजएज्जा - सूत्रकृतांग ७२६ (ग) स्थानांग ६ ( भोजन के यह कारण इसी प्रकरण में देखिए ) संभार बहुट्टपाए (घ) लिपि -3 भगवती १२२ (ज) जट्टा महामृषी-उत्तराध्ययन २५६७ मा २६१३३ चैतन्य महाप्रभु उत्तराध्ययन सूत्र -६३३ तथा स्थानांग सूत्र ६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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