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________________ १२ तपस्वियों की अमर परम्परा जैन परम्परा में तप का सिर्फ सैद्धान्तिक महत्व ही नहीं रहा है, यिन्तु आचरण में भी उसका अपार महत्त्व रहा है। जैसे दूध के कण-कण में घृत . रमा हुआ है, फूलों की कली-कली में सौरभ वसा हुआ है और ईस के पोरे । पोरे में माधुर्य छलकता रहता है वैसे ही जैन साधकों के जीवन के प्रत्येय कण में, प्रत्येक रूप में तप समाया हुआ है । उनका हर व्यवहार तपोमय होता है, वहाँ तप जीवन की रसायन के रूप में प्रयुक्त होता रहा है । एक से एक बढ़कर तपस्वी, ध्यानी, मौनी वहां हुए हैं जिनका जीवन मोदक की तरह तप का परिपूर्ण माधुर्य लिए हुए है। देखिए प्रथम जिनेन्द्र तप धारयो एफ अन्द अहा, - बाहुबलो ताहि भांति ग्रही तप तेग को। त्रिशला सपूत, तप फोनो तो अभूत जग ___घना नंदोषेण भर देखो मुनि मैप को। पन्दना र काली राणी दस को यपान पढ़ो, . विचित्र तपस्या तपी बरी शिव वेग को। .
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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