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________________ १४४ जैन धर्म में तप २-दूसरों को उद्विग्न--कप्ट न देने वाला, शांति कारक, सत्य, प्रिय हितकर वचन बोलना, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय (अनुचितन) एवं अध्ययन करना-यह वाचिक (वचन का) तप है। ३-मन को प्रसन्न रखना, शांत भाव, मौन, मनोनिग्रह और मन को शुद्ध-पवित्र रखना--यह मानसिक तप है। .. तप के ये तीन स्वरूप बताकर फिर तीनों ही तप की शुद्धता, ध्येय की पवित्रता एवं आचरण की निष्कपटता पर भी विचार किया गया है। ... ___ गीताकार ने बताया है-उपर्युक्त तीनों प्रकार का तप यदि निष्काम.. वृत्ति-फल की आकांक्षा से रहित होकर दृढ़ श्रद्धा के साथ किया जाता है. तो वह तप सात्विक तप है, अर्थात् प्रथम श्रेणी का तप है। यदि यह तप सत्कार, सम्मान एवं लोकों में पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए किया . . जाय - तो फिर उसकी उदात्तता एवं पवित्रता में कमी आ जाने से यह तप । 'राजस' श्रेणी में आ जाता है, क्योंकि इस प्रकार के तप में आत्म-शोधन . एवं ईश्वर-आराधना की प्रवृत्ति नहीं रहती किन्तु, दिखावा, प्रदर्शन और यश की भूख ही प्रवल रहती है । फिर भी यह तप गीता की दृष्टि में द्वितीय ... श्रेणी का है, जब कि जैन दर्शन में इस प्रकार के तप का सर्वथा ही निषेध किया गया है। ___गीता की दृष्टि से तीसरी श्रेणी का तप तो विल्कुल निम्नस्तर का . मूढाग्रहेणात्मनो यत् पोडया क्रियते तपः परस्योत्सादनायं वा तत्तामसमुदाहृतम् ११७.. .. जिस तप में मूढता, दुराग्रह की भावना छिपी हो, जिद्द पर चढ़ कर ही . शरीर को कष्ट दिया जाता हो, अथवा दूसरे का अनिष्ट करने की भावना से जो तप किया जाता हो, वह तामस तप' कहलाता है । यह तप बात्मशुद्धि की दृष्टि से तो हेय है हो, किन्तु नैतिक दृष्टि से भी त्याज्य है। १ श्रीमद् भगवद् गीता, अध्याय १७
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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