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________________ तप का वर्गीकरण (१) आत्मन्तप-कुछ साधक अपने शरीर नादि को कठोर तपश्चर्या के द्वारा सुखा डालते हैं, उसे कष्ट देते हैं, किन्तु दूसरों को कुछ भी पीड़ा नहीं पहुंचाते। (२) परंन्तप-कुछ व्यक्ति दूसरों को ही कष्ट देते है. स्वयं सदा सुख सुविधा में रहना पसंद करते हैं। (३) आन्मन्तप-परंतप-कुछ व्यक्ति स्वयं भी धार्मिक अनुष्ठान आदि करके कप्ट उठाते हैं, और दूसरों को भी कष्ट पहुंचाते हैं। (४) न आत्मन्तप न परंतप-जो लोग न तो स्वयं कष्ट करते हैं और न दूसरों को ही कुछ कप्ट देते हैं। बुद्ध ने इन चार भेदों में चौथा भेद श्रेष्ठ बताया है । वे अपने अनुयायियों (श्रावकों) से कहते हैं-तुम न स्वयं कष्ट उठाओ और न मोरों को कष्ट व पीड़ा दो। यद्यपि जैन परम्परा में इस प्रकार के तप का कोई खास महत्व नहीं है । वहां तो पहला भेद ही मुख्य रूप से स्वीकार्य है, कि स्वयं को चाहे जितना फष्ट उठाना पड़े, तपस्या करनी पड़े किन्तु दूसरों को वितकुल ही पीड़ा मत दो । स्वयं कष्ट उठाने से दूसरे का लाभ होता हो तो और भी श्रेष्ठ । चौथा भेद तो एक प्रकार को अकर्मण्यता ही है---न स्वयं कष्ट क्षेले, न दूसरों को कष्ट दें। दूसरा-तीसरा भेद जैन दृष्टि में सर्वथा त्याज्य है। ऐसे व्यक्ति तपस्वी तो क्या साधारण योग्य नागरिक भी नहीं माने जा सकते। आजीचिफों के धार तप भगवान महावीर के समय में गौशालक के आजीविका संप्रदाय का भी काफी बल बह गया पा। उसके सिद्धान्त प्रायः भगवान महावीर के सिद्धान्तों पी नफल मात्र ही भे, हां उनमें कुछ सरलता और लोकों का मनोरंजन हो ऐनी बातें और जोड़ दी गई थी। तप पर गोगालक का काफी चल पा, १ मन्सिय निकाय, पदरक नुत । भगवान् बुर पृ० २२०
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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