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________________ .१२२ जैन धर्म में तप रहा था, पंचाग्नि तप में शरीर को झोंक रहा था उसकी तत्कालीन जनता पर गहरी धाक थी । वह जवं वाराणसी में आया तो नगर की जनता हाथों में भेंट पूजा के थाल सजाकर उसके दर्शनों के लिए उमड़ पड़ी थी। हजारों लोगों को एक ही दिशा में जाते देखकर पार्श्वकुमार ने अपने सेवक से पूछा तो पता चला कि एक महान तपस्वी नगरों में आया है, लोग उसके दर्शन करने जा रहे हैं । पार्श्वकुमार भी उस तपस्वी को देखने के लिए घोड़े पर चढ़कर बाहर निकले । किन्तु जब उसे अपने चारों ओर बड़े-बड़े लक्कड़ 2 I . जलाकर बीच में बैठे हुए देखा तो वे स्तंभित रह गये । वे सोचने लग गयेयह कोई तप है ? इतनी अग्नि हिंसा ! इतना पाखण्ड ! इतना प्रदर्शन ! एक तरफ तो यह तपस्वी होने का दंभ कर रहा है, और दूसरी ओर इसकी धधकती अग्नि ज्वालाओं में नाग जैसे पंचेन्द्रिय प्राणी जल रहे हैं ! प्रभु पार्श्व का हृदय करुणा से द्रवित हो गया । वे तपस्वी के पास आये । उसे यह अज्ञान तप करने से रोकते हुए बताया- 'तुम्हारे विवेकहीन आचरण से कितने जीवों की घात हो रही है पता है तुम्हें ? इतना कष्ट ! भूख, प्यास गर्मी सहन करके भी तुम उल्टा कर्म बन्धन करते जा रहे हो !" कमठ तापस उल्टा पार्श्वकुमार पर गुर्राया "राजकुमार ! तुम्हें क्या पता धर्म क्या होता है ? तप क्या होता है ?" पार्श्वकुमार ने शान्ति से तापस को समझाया किन्तु जब वह नहीं समझा तो अपने सेवकों को आदेश दिया - "तपस्वी की धूनी में जो लक्कड़ पड़े हैं उनमें एक नाग जल रहा है, उसे सावधानी से बचाओ !" : सेवकों ने लक्कड़ बाहर निकाले, तो उसमें से एक विशाल नाग कोमल होती है, वह लपटों के बीच पड़ा था, तड़पता हुआ निकला । सांप की चमड़ी बहुत तेज धूप से भी जल जाता है, वहां तो आग की विचारा मरणासन्न हो गया था, प्रभु ने नवकार उसका उद्धार किया । मंत्र का स्मरण कराकर इस घटना से पता चलता है कि उस युग में अज्ञान तप का कितना जोर था और लोगों के मन पर उसका कितना प्रभाव था ! भगवान
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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