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________________ ११४ . . . . जैन धर्म मैं तप ही है, कामना है, यशःस्पृहा है। क्योंकि जो साधक तीर्थकर होने की इच्छा करता है वह तीर्थंकरों के देवकृत अतिशयों से, उनके छत्र, चामर भामण्डल आदि वैभव से तथा लोक में उनकी यश: प्रतिष्ठा एवं कीति सुनने से प्रभावित होकर उस पद की अभिलाषा करता है. अत: आखिर है तो यह भी एक प्रकार की कामना, पूजा-सत्कार की स्पृहा । इस कारण साधक को इस पद की भी कामना नहीं करनी चाहिए । यदि चाहना हो तो मोक्षगमन की चाहना करे, केवलज्ञान, केवलदर्शन की अभिलाषा रखे, किंतु तीर्थकर पद की अभिलाषा न करें । क्योंकि पदवी की अभिलाषा रखना ही त्याज्य है।' इसी प्रकार चरम शरीर होने की भी अभिलापा न करें, क्योंकि उसमें भी पुनर्जन्म की अभिलापा छिपी है। एक दूसरा प्रश्न आचार्य ने उपस्थित किया है कि ठीक है, कोई भोगों . की, यश-प्रतिप्ठा की, पद की, एवं पुनर्जन्म की कामना न करें किंतु यदि ऐसी कामना करे कि-"मैं अगले जन्म में आसानी से मुनि बन सकू, संसार का त्याग कर सकू, किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो, अतः किसी दरिद्रकुल में उत्पन्न होऊ, ताकि सहजतया भोग-त्याग कर दीक्षा ले सकू" यदि ऐसा निदान करे तो क्या आपत्ति है ? आचार्य ने प्रश्न का उत्तर स्वयं ही देते हुए कहा है-इस प्रकार की कामना भी साधक को नहीं करना चाहिए । क्योंकि जैसी सुख की कामना हैं, वैसी ही दुःख की भी कामना है। वैभव और दरिद्रता दोनों की अभिलापा ही त्याज्य है। सोने की वेड़ी न चाहकर लोहे की वेड़ी चाहना भी तो मूर्खता ही है १ इहलोग पर-निमित्तं अवि तित्यकरत्त चरिम देहत्तं । सम्वत्येसु भगवता अणिदाणंतं पसत्यं ..तु। .. . ... -पंचाशक विवरण गा. २५८ यतस्तीयंकर सत्कस्यामरवरनिर्मित - समवसरण कनक-कमल प्रमुख विभवस्य दर्शनात् श्रवणाद् वा संजाततदमिलापः, कोपि विकल्पे करोति भव-भ्रमणतोऽप्यहं तीर्थकरो भूयासमिति । -पंचायक विवरण टीका
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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