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________________ लब्धि-प्रयोग : निषेध और अनुमति १०१ की भूमि माँगी । जव वैक्रिय लब्धिफोड़कर लाख योजन का रूप बनाया और दो चरण में जंबूद्वीप के ओर छोर को नाप कर तीसरा चरण रखने की भूमि माँगी, और आखिर दुष्ट नमुचि के अत्याचारों से धर्म शासन की रक्षा की । यदि ऐसे प्रसंग पर उनके सामने यह अपवाद मार्ग नहीं होता, तो क्या जैन शासन की रक्षा हो सकती थी ? इसीलिए आचार्यों ने माना है कि लब्धि फोड़ना एकान्तरूप से निषिद्ध ही हो ऐसी बात नहीं है, परिस्थिति का विवेक तो उसमें होना ही चाहिए । गौतम गणधर ने अष्टापद से उतरते समय जव पन्द्रह सौ तीन तापसों को अपने प्रति आकृष्ट हुए देखा और उनकी प्रार्थना पर उन्हें वहीं दीक्षा देकर खीर का पारणा कराने लगे तो अक्षीण महानस लब्धि के प्रभाव से एक ही क्षीर पात्र में से पन्द्रह सौ तीन तापसों को भरपेट पारणा करवा दिया। 1 उस सम्बन्ध में कहा है छोटा क्षीर पात्र भर पनरास तीन मुनि ज्यांको पेट भरपाई खूटी नांही खीर रे । दीक्षा निज हाथ दीनी केवलो बने हैं वे तो ऐसे थे दयालु गुरु धारया जिन वोर रे । अतिशयवन्त छवि चकित निहार होत, कंचन समान फान्ति राजती शरीर रे । कामधेनु मणि सुरतरु तिहुँ नाम छाजे 'मिश्री' लब्धि गौतम की भांजी डारे भोर रे । तो यह भी एक विशेष परिस्थिति थी, वे जानते थे कि इसके कारण इन तापसी के मन में धर्म के प्रति दृढ़ आस्था उत्पन्न होगी । इस प्रकार के अनेक प्रसंग आगमों में व अन्य ग्रन्थों में आते हैं जिनसे यह पता चलता है कि लब्धि-प्रयोग कभी कभी परिस्थिति विशेष में किया भी जाता था और १ कल्पसूत्र प्रबोधिनी पृ० १६६
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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