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________________ . .. जैन धर्म में तप ...... के एक उल्लेख की ओर ध्यान देना होगा । गौतमस्वामी की विशिष्ट साधना का वर्णन करते हुए भगवान ने बताया है- गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी संखित्त विउल तेउलेस्से... " गौतम इन्द्रिय शक्तियों का संगोपन करते थे, अर्थात् कभी अपनी शक्ति और तेज का प्रदर्शन नहीं करते थे तथा विपुल तेजोलेश्य का भी संगोपन करके रखते थे। लब्धियाँ प्राप्त करके उन्हें पचा. .. लेते थे, उनका अजीर्ण उन्हें नहीं होता था। गरिष्ठ भोजन करने का . महत्व नहीं है, महत्व है उसे पचाने का। वैसे ही शक्ति को प्राप्त करना उतना महत्वपूर्ण नहीं हैं किन्तु शक्ति को प्राप्त करके उसे पचा लेना बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए शास्त्रों में जहाँ लब्धियों का वर्णन किया गया है, वहाँ लब्धियों के प्रदर्शन व प्रयोग का निपेध भी किया गया है । प्रसिद्ध है कि आचार्य स्थलिभद्र ने अपनी बहनों को चमत्कार दिखाने के लिए लन्धि फोड़ . कर सिंह का रूप बनाया था । बहनें भाई का दर्शन करने गई थी पर भाई ..." की जगह सिंह को बैठा देखा तो वे भयभीत हुई, घबरा गई। सोचा-... अवश्य ही इस सिंह ने हमारे भाई को खा लिया है । वे घबराई हुई आचार्य भद्रबाहु के पास आई और बोली - "भगवन् ! अनर्थ हो गया । स्थूलिभद्र के आसन पर तो एक केसरी सिंह बैठा है ।" आचार्य ने ज्ञानवल से देखा . तो पता चला कि सिंह और कोई नहीं, स्यूलिभद्र ने ही यह रूप बनाया है। .. आचार्य को बड़ा खेद हुआ-सोचा स्थूलिभद्र को विद्या सिखाई तो है, परन्तु उसे हजम नहीं हुई । इसी कारण आचार्य ने आगे ज्ञान देने से इन्कार .. . कर दिया। इसका अर्थ है लधि फोड़ना एक प्रकार से शक्ति का अजीर्ण है। किन्तु कब ? जव कि वह अपना अहंकार पोषण करने के लिए हो, लोगों को जागर जैसा चमत्कार दिखाकर मनोरंजन करने के लिए हो। . . . . . लब्धि फोड़ना प्रमाद है .. सबसे पहली बात तो यह है कि लब्धि का प्रयोग, लब्धि फोड़ना एक .. प्रमाद है, प्रमादसेवना है। जितने भी लब्धि प्रयोग किये जाते हैं-सब . प्रमत्त दशा में ही होते हैं । च्छे गुण स्थान तक ही लन्धि प्रयोग है । सप्तम गुणस्थान वाला कभी भी लब्धि का प्रयोग नहीं करता, क्योंकि यहां अप्रमत्त
SR No.010231
Book TitleJain Dharm me Tap Swarup aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni, Shreechand Surana
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year1972
Total Pages656
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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