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________________ १६ १. पव्वयरा इसमाणं कोहं अणुपविट्ठे जीवे । कालं करेइ णेरइएस उववज्जति ।। ४. पर्वत की दरार के समान जीवन म कभी नही मिटनेवाला उग्र क्रोध आत्मा को नरकगति की ओर ले जाता है । २. कुद्धो सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज । जे चंडे मिए थद्ध दुव्वाई बुझइ से अविणायप्पा, कट्ठ क्रोध - प्रश्नव्याकरण २।२ क्रोध में अंधा हुआ व्यक्ति, सत्य, शील और विनय का नाश कर डालता है । — स्थानांग ४।२ अपने-आप पर भी कभी क्रोध न करो । कोहविजए णं खंत जणयई । नियडी सढे । सोयगयं जहा । ६२ जो मनुष्य क्रोधी. अविवेकी, अभिमानी, दुर्वा दी, ( कटुभापी) कपटी और धूर्त है, वह ससार के प्रवाह मे वैसे ही बह जाता है, जैसे जल के प्रवाह मे काष्ठ | अप्पाणं वि न कोवए । - दशवैकालिक हा२३ उत्तराध्ययन ११४० - उत्तराध्ययन २६/६७ ोध को जीत लेने से क्षमाभाव जागृत होता है । पासम्म बहिणिमायं, सिसुपि हणे कोहंधो । - वसुनन्दिश्रावकाचार ६७
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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