SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३ १. २. ३. ४. बहुपि लघु न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसविकज्जा । अधिक मिलने पर भी संग्रह न करे । परिग्रह - वृत्ति से अपने को दूर रखे । अपरिग्रह परिग्गहनिविट्ठाणं वेरं तेसि पवड्ढई । लोभ-कलि-कमाय-महक्खंधो, चिंतासयनिचयविपुलसालो । - आचारांग १।२५ - सूत्रकृतांग १।६।३ जो परिग्रह (संग्रहवृत्ति) में फँसे है, वे संसार में अपने प्रति बैर ही बढाते है । - प्रश्न ० ११५ परिग्रह रूपी वृक्ष के स्कन्ध अर्थात् तने हे – लोभ, क्लेश और कपाय | चिन्ता रूपी सैकड़ो ही सघन और विस्तीर्ण उसकी शाखा है । नत्थि एरिसो पासो पडबंधो अत्थि, सव्वजीवाणं सव्वलोए । ५३ - प्रश्न० ११५ संसार मे परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई जाल एवं बन्धन नहीं है ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy