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________________ ब्रह्मचर्य ७. देव-दाणव-गंधव्वा, जक्ख-रक्खस-किन्नरा । बंभयारिं नमसंति, दुक्करं जे करंति तं । -उत्तराध्ययन १६।१६ देवता, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक को नमस्कार करते हैं। क्योंकि वह एक बहुत दुष्कर कार्य करता है। . ८. जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया, हविज्ज जा जदिणो। तं जाण बंभचे, विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ।। -भगवती आराधना ८७८ ब्रह्म का अर्थ है-आत्मा, आत्मा मे चर्या-रमण करना ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचारी की पर-देह में प्रवृत्ति और तृप्ति नहीं होती। ६. द्रव्यब्रह्म अज्ञानिनां वस्तिनिग्रह , मोक्षाधिकारशून्यत्वात् । -उत्तराध्ययनचूणि १६ अज्ञानी साधको का चित्तशुद्धि के अभाव में किया जानेवाला केवल-जननेन्द्रिय-निग्रह द्रव्य ब्रह्मचर्य है, क्योंकि वह मोक्ष के अधि कार से शून्य है। १०. वस्तीन्द्रियमनसामुपशमोब्रह्मचर्यम् । -मनोनुशासन ६।५ जननेन्द्रिय, इन्द्रियसमूह और मन की शांति को ब्रह्मचर्य कहा जाता है। नाल्पसत्त्वेन निःशील - नदीनै क्षनिर्जितैः । स्वप्नेपि चरितु शक्यं, ब्रह्मचर्यमिदं नरैः।। ज्ञानार्णव, पृष्ठ १३३ अल्पशक्तिवाले, सदाचाररहित, दीन और इन्द्रियों द्वारा जीते गये लोग इस ब्रह्मचर्य को स्वप्न में भी नही पाल सकते । ११. ५
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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