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________________ दुर्गतिप्रपतत्प्राणि-धारणाद्धर्म उच्यते। -योगशास्त्र २।११ दुर्गति मे गिरते हुए प्राणी को धारण करने से धर्म 'धर्म' कहा जाता है। जीवदया सच्चवयणं, परधणपरिवज्जणं सुसीलं च । खंति पंचिंदियनिग्गहो य धम्मस्स मूलाई ।। -वर्शनशुद्धितत्त्व जीवदया, सत्यवचन, पर-धन का त्याग, शील-ब्रह्मचर्य, क्षमा, पाच इन्द्रियो का निग्रह-ये धर्म के मूल है। ५१. .जह भोयणमविहिकय, विणासए विहिकयं जीयावेइ । तह अविहिकओ धम्मो, देइ भवं विहिकओ मुक्ख ।। -सबोधसत्तरी ३५ जैसे अविधि से किया हआ भोजन मारता है और विधिपूर्वक किया हुआ जीवन देता है, उसीप्रकार अविधि से किया हुआ धर्म ससार मे भटकाता है एव विधिपूर्वक किया हुआ धर्म मोक्ष देता है। ५२. णो अन्नस्स हेडं धम्ममाइक्खेज्जा । णो पाणस्स हे धम्ममाइक्खेज्जा ।। -सूत्र० २०१११५ खाने पीने की लालसा से धर्म-उपदेश नही करना चाहिए। अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा, कम्मनिज्जरट्ठाए धम्ममाइक्खेजा। -सूत्र० २।१११५ साधक विना किसी भौतिक इच्छा के प्रशान्तभाव से एकमात्र कर्मनिर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करे ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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