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________________ २२ १२. १३. १४. १५. जैनधर्म की हजार शिक्षाएं धर्म ही रक्षा करनेवाला है, उसके सिवा विश्व राजन् ! एक में कोई भी मनुष्य का त्राता नहीं हैं । पन्ना समिक्ख धम्मं । -उत्त० २३।२५ साधक की अपनी प्रज्ञा ही समय पर धर्म की समीक्षा कर सकती है । विन्नाणेण समागम्म, धम्म साहणमिच्छिउ । —उत्त० २३।३१ विज्ञान ( विवेक - ज्ञान) से ही धर्म के साधनों का निर्णय होता है । पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं । -उत्त० २३।३२ धर्मों के वेष आदि के नाना विकल्प जन साधारण में प्रत्यय ( परिचय - पहचान ) के लिए है । जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पट्ठा य, गई सरणमुत्तमं । -उत्त० २३०६८ जरा और मरण के महाप्रवाह में डूबते प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा आधार है, गति है और उत्तम शरण है । नाणसारियं बिति । निव्वाणं || -आचा० नि० २४४ च - १६. लोगस्स सारं धम्मो, धम्मं पिय नाणं संजमसारं संजमसारं विश्व – सृष्टि का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान (सम्यग्बोध ) है, ज्ञान का सार संयम है, और संयम का सार निर्वाण - ( शाश्वत आनन्द की प्राप्ति ) है । १७ / धर्मो बन्धुश्च मित्रश्च धर्मोऽयं गुरुरङ्गिनाम् । तस्माद्धर्मे मतिं धत्स्व स्वर्मोक्षसुखदायिनि ॥ - आदिपुराण १०।१०६
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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