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________________ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं जो छंदमाराहयई स पुज्जो। -दशव० ६३१ जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है, वही शिष्य पूज्य होता है। ६. राइणियस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा । नो अंतरा भासं भासिज्जा। -आचारांग २।३३३ अपने से बड़े गुरुजन जब बोलते हों, विचार-चर्चा करते हों, तो उनके बीच में न बोले । __ असासिओ न कुप्पिज्जा। · उत्तरा० १९ गुरुजनों के अनुशासन से कुपित =क्षुब्ध नही होना चाहिए । ८. हियं तं मण्णई पण्णो, वेसं होइ असाहुणो । -उत्तरा० १०२८ प्रज्ञावान शिष्य गुरुजनों की जिन शिक्षाओं को हितकर मानता है, दुर्बुद्धि दुष्ट शिष्य को वे ही शिक्षाएं बुरी लगती हैं। • ६. रमए पंडिए सासं हयं भद्द व वाहए । - उत्तरा० ११३७ विनीत बुद्धिमान शिष्यों को शिक्षा देता हआ ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न होता है, जिस प्रकार भद्र अश्व (अच्छे घोड़े) पर सवारी करता हुआ घुड़सवार । बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व वाहए । -- उत्तरा० ११३७ बाल अर्थात् जद मूढ शिप्यो को शिक्षा देता हुआ ज्ञानी गुरु उसी प्रकार खिन्न होता है, जैसे अडियल या मरियल घोड़े पर चढ़ा हुआ मवार । १०.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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