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________________ वीतरागता २१३ ६ कामी कामे न कामए, लद्धवावि अलद्धं कण्हुई । -सूत्रकृतांग १।२।३।६ साधक सुखाभिलापी होकर कामभोगों की कामना न करे । प्राप्त भोगों को भी अप्राप्त जैसा कर दे । अर्थात् उपलब्ध भोगों के प्रति भी निःस्पृह रहे । लद्ध कामे न पत्थेज्जा। -सूत्रकृतांग १।६।३२ प्राप्त होने पर भी कामभोगों की अभ्यर्थना (स्वागत) न करे। वीयरागयाए णं नेहाणबंधणाणि, तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिंदई । -उत्तराध्ययन २६।४५ वीतराग भाव की साधना से स्नेह (राग) के बन्धन और तृष्णा के बन्धन कट जाते हैं। न लिप्पई भव मझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं । -उत्तराध्ययन ३२१४७ जो आत्मा विषयों के प्रति अनासक्त है, वह ससार में रहता हुआ भी उसमे लिप्त नहीं होता । जैसे कि पुष्करिणी के जल में रहा पलाश-कमल। समो य जो तेसु स वीयरागो। -उत्तराध्ययन २६।६१ जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विपयों में सम रहता है, वह वीतराग है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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