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________________ पुण्य-पाप ε. १०. ११. १२. १३. १४. चरिया पमादबहुला, कालुस्सं लोलदा य विसयेसु । परपरितापवादो, पावस्स य आसवं कुणदि || - पंचास्तिकाय १३६ प्रमादबहुलचर्या, मन की कलुषता, विषयो के प्रति लोलुपता, परपरिताप ( परपीड़ा) और परनिन्दा – इनसे पाप का आश्रव ( आगमन) होता है । पामयति पातयति वा पापं । - उत्तराध्ययन चूर्ण २ जो आत्मा को बांधता है, अथवा गिराता है, वह पाप है । २०१ पुन्नं मोक्खगमणविग्धाय हवति । - निशीथचूर्ण ३३२६ परमार्थ दृष्टि से पुण्य भी मोक्ष प्राप्ति में विघातक - बाधक है । न हु पावं हवइ हियं, विसं जहा जीवियत्थिस्स । -मरणसमाधि ६१३ जैसे कि जीवितार्थी के लिए विप हितकर नहीं होता, वैसे ही कल्याणार्थी के लिए पाप हितकर नहीं हैं । संसारसंतईमूलं, पुण्णं पावं पुरेकडं । ऋषिभाषितानि |२ पूर्वकृत पुण्य और पाप ही संसार परम्परा का मूल है । हेमं वा आयसं वानि. बंधणं दुक्खकारणा । महग्घस्सावि दंडस्स, णिवाए दुक्खसंपदा || - ऋषिभाषितानि ४५।५ बन्धन चाहे सोने का हो या लोहे का, बन्धन तो आखिर दुःखकारक ही है । बहुत मूल्यवान दण्ड (डंडे ) का प्रहार होने पर भी दर्द तो होता ही है !
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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