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________________ कर्म-अकर्म १९३ एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं । -सूत्रकृतांग १।२।२।२२ आत्मा अकेला ही अपने किए हुए दुःख को भोगता है । जं जारि पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए। -सूत्रकृतांग ११२२ अतीत में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है। ८. तुति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ। -सूत्रकृतांग १११६ जो नए कर्मों का बन्धन नहीं करता है, उसके पूर्वबद्ध पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं। ६. अकुव्वओ णवं णत्थि । -सूत्रकृतांग ११११७ जो अन्दर में राग-द्वेष रूप-भावकर्म नहीं करता, उसे नए कर्म का बन्ध नहीं होता। १९. दुक्खी दुक्वेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे। -भगवती ७१ जो दुःखित-कर्म-बद्ध है, वही दु:ख-बन्धन को पाता है, जो दुःखित बद्ध नहीं है वह दुःख-बन्धन को नहीं पाता। सकम्मुणा किच्चइ पावकारी.. कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । -उत्तराध्ययन ४१३ पापात्मा अपने ही कर्मों में पीड़ित होता है । क्योंकि " कृत-कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है । १३
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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