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________________ अनासक्ति १७६ जिसकी मति, काम (वासना) से मुक्त है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है। १०. णहि णिरवेक्खो चागो. __ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स हि चित्ते. कहं णु कम्मक्खओ होदि ।। -प्रवचनसार ३२० जब तक निरपेक्ष (आशा-प्रत्याशारहित) त्याग नहीं होता है, तब तक साधक की चित्तशुद्धि नही होती है । और जब तक चित्तशुद्धि (उपयोग की निर्मलता) नही होती है, तब तक कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? तण-कठेहि व अग्गी, लवणजलो व नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउ कामभोगे। -आतुर-प्रत्याख्यान ५० जिस प्रकार तृण व काष्ठ से अग्नि, तथा हजारों नदियों से समुद्र तृप्त नही होता है, उसी प्रकार रागासक्त आत्मा कामभोगों से कभी तृप्त नही हो पाता। विणीय तण्हो विहरे। -दशवकालिक ८६० तृष्णा से मुक्त होकर विचरना चाहिए। मेहावी अप्पणो गिद्धिमुद्धरे। -सूत्रकृतांग ८।१३ गृद्धि-आसक्ति से अपने को उबारना बचाना चाहिए। १४. से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए । -सूत्रकृतांग १५।१४ १२
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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