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________________ १७४ ५. ७. ८. १०. जैनधर्म की हजार शिक्षाए सण विप्पमाण पुढो वयं पकुव्वह । मनुष्य अपनी ही भूलों से संसार को विचित्र स्थितियों में फंस जाता है। - आचारांग ११२/६ सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स णत्थि भयं । - आचारांग १।३।४ प्रमत्त को सब ओर से भय रहता है । अप्रमत्त को किसी भी ओर से भय नहीं है । उठिए नो पमायए ! -- आचारांग १।५।२ जो कर्तव्य पथ पर खड़ा हुआ है, उसे फिर प्रमाद नहीं करना चाहिए । चतुर वही है, जो प्रमाद न करे । पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं । -सूत्रकृतांग १/८/३ प्रमाद को कर्म - आश्रव ( कर्म का हेतु) और अप्रमाद को अकर्म -संवर कहा है । जे छे से विप्पमायं न कुज्जा । - सूत्रकृतांग १।१४।१ जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव अणारंभा । - भगवती १।१ आत्मसाधना में अप्रमत्त रहनेवाले साधक न अपनी हिंसा करते हैं न दूसरों की, वे सर्वथा अनारम्भ-अहिंसक रहते हैं ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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