SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्म-विजय १६९ ५. अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिउ।। -सूत्रकृतांग १।१।२।१७ जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह दूसरों पर अनुशासन कैसे कर सकता है ? अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ।। -उत्तराध्ययन ११५ अपने-आप पर नियत्रण रखना चाहिये । अपने आप पर नियत्रण रखना वस्तुत: कठिन है । अपने पर नियन्त्रण रखने वाला ही इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है । ७. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । माहं परेहिं दम्मतो बंधणेहिं वहेहि य ।। -उत्तराध्ययन ११६ दूसरे वध और बंधन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपना (इच्छाओं का) दमन कर लू। ८. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिए। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ।। -उत्तराध्ययन ६।३४ भयंकर युद्ध में हजारों-हजार दुर्दान्त शत्रओं को जीतने की अपेक्षा अपने-आप को जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय सव्वं अप्पे जिए जियं । - उत्तराध्ययन ६।३६ एक अपने (विकारों) को जीत लेने पर सब को जीत लिया जाता है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy