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________________ १६६ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं यह शरीर नौका है, जीव आत्मा उसका नाविक है और संसार समुद्र है । महर्षि इस देहरूप नौका के द्वारा संसार-सागर को तैर जाते हैं। भावे अ असंजमो सत्थं । -आचारांगनियुक्ति ६६ भावदृष्टि से संसार में असंयम ही सबसे बड़ा शस्त्र है । ११. भावंमि उ पव्वज्जा आरंभपरिग्गहच्चाओ। -उत्तराध्ययननियुक्ति २६३ हिंसा और परिग्रह का त्याग ही वस्तुतः भावप्रव्रज्या है । १२. मणमंजमो णाम अकुसल मणनिरोहो, कुसलमण उदीरणं वा। ---दशवकालिकचूणि १ अकुशल मन का निरोध और कुशल मन का प्रवर्तन - मन का संयम है। १३ अण्णाणोवचियस्स, कम्मचयस्स रित्तीकरणं चारित्तं । - निशीथणि ४६ अज्ञान से संचित कर्मों के उपचय को रिक्त करना-चारित्र है। १४. सम्मईसण णाणं चरणं मुक्खस्स कारणं जाणे । -द्रव्यसंग्रह ३६ सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र—यही रत्न त्रय मोक्ष का साधन है। असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ति य जाण चारित्तं । -द्रव्यसंग्रह ४५ अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति करना-इसे ही चारित्र समझना चाहिए।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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