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________________ १३८ २५. जैनधर्म की हजार शिक्षाएं अन्तर-बाहिरजप्पे, जो वट्इ सो हवेइ बहिरप्पा । जप्पेसु जो ण वट्टइ, सो उच्चइ अन्तरंगप्पा । -नियमसार १५० जो अन्दर एव बाहिर के जल्प (वचनविकल्प) में रहता है, वह बहिरात्मा है । और जो किसी भी जल्प में नही रहता, वह अन्त रात्मा कहलाता है। २६. अप्पाणं विणु णाणं, णाण विणु अप्पगो न संदेहो। -नियमसार १७१ यह निश्चित सिद्धान्त है कि आत्मा के बिना ज्ञान नही, और ज्ञान के बिना आत्मा नही। २७. अप्पो वि य परमप्पो, कम्मविम्मुक्को य होइ फुडं । -भावपाहुड १५१ आत्मा जब कर्म-मल मे मुक्त हो जाता है, तो वह परमात्मा बन जाता है। २८. तिपयागे सो अप्पा पर-मन्तरबाहिरो दु हेऊणं । -मोक्षपाहुड ४ आत्मा के तीन प्रकार है-परमात्मा, अन्तरात्मा और वहिरात्मा। (इनमे बहिगन्मा से अन्तरात्मा, और अन्तगत्मा से परमात्मा की ओर बढना चाहिए।) २. चित्तं तिकालविसयं । -दशवै० नि० भाष्य० १९ आत्मा की चेतनाशक्ति त्रिकालज्ञ है। ममस्त भावो को जानने की क्षमता आत्मा म है। ३०. णिच्चो अविणासि सासओ जावो । -दशव०नि० भाष्य ४२ आत्मा नित्य है, अविनाशी है, एवं शाश्वत है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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