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________________ १३० १२. १३. १४. १५. जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ अपना मनोबल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा, स्वास्थ्य, क्षेत्र और काल को ठीक तरह से परख कर ही अपने को किसी भी सत्कार्य के सम्पादन में नियोजित करना चाहिए । जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्ढइ | जाविंदिया न हायन्ति ताव धम्म समायरे ॥ - दशवैकालिक ८|३६ जब तक बुढ़ापा आता नही, जब तक व्याधियां का जोर बढ़ता नही, जब तक इन्द्रियाँ ( कर्मशक्ति) क्षीण नही होती हैं, तभी तक बुद्धिमान को जो भी धर्माचरण करना हो, कर लेना चाहिए । कुलं विणासेइ सयं पयाता, नदीव कूल कुलडा उ नारी । - बृहत्कल्पभाष्य ३२५१ स्वच्छन्द आचरण करनेवाली नारी अपने वं श्वसुरकुल ] को वैसे ही नष्ट कर देती है बहती हुई नदी अपने दोनो कूलो [ तटों को । दोनो कुलो | पितृकुल जैसे कि स्वच्छन्द भण्णति सज्झमसज्यं, कज्जं सब्झ तु साहए मइमं । अविसज्यं साहंतो, किलिसति न त च साहेई || - निशीथभाष्य ४१५७ कार्य के दो रूप है— साध्य और असाध्य, बुद्धिमान साध्य को साधने मे ही प्रयत्न करे । चूंकि असाध्य को साधने में व्यर्थ का क्लेश ही होता है और कार्य भी सिद्ध नही हो पाता । आवत्तीए जहा अप्पं तहा अण्णोवि आवत्तीए रक्खति । रक्खियव्वो । - निशीथचूण ५६४२ आपत्तिकाल मे जैसे अपनी रक्षा की जाती है, उसी प्रकार दूसरों की भी रक्षा करनी चाहिए ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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