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________________ १२६ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं अपनी शक्ति को ठीक तरह पहचान कर यथावसर यथोचित कर्तव्य का पालन करते हुये राष्ट्र (विश्व) में विचरण करिए। २२. सीहो व सद्दण न संतसेज्जा। -उत्तराध्ययन २१।१४ सिंह के समान निर्भीक रहिए, केवल शब्दों (लोक-चर्चाओं) से न डरिए। २३. जंकल्लं कायव्वं, णरेण अज्जेव तं वरं का।। मच्चू अकलुणहिअओ, न हु दीसइ आवयंतो वि ।। बृहत्कल्पभाष्य ४६७४ जो कर्तव्य कल करना है, वह आज ही कर लेना अच्छा है । मृत्यु अत्यन्त निर्दय है, यह कब आ कर दबोच ले, मालुम नहीं ! क्योंकि वह आता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। २४. तूरह धम्म काउ, मा हुपमायं खणं वि कुश्वित्था । बहुविग्घो हु मुहत्तो, मा अवरह पडिच्छाहि ।। -बृहत्कल्पभाष्य ४६७५ धर्माचरण करने के लिए शीघ्रता करो, एक क्षण भी प्रमाद मत करो । जीवन का एक-एक क्षण विघ्नों से भरा है, इसमे संध्या की भी प्रतीक्षा नही करनी चाहिए। २५. जागरह ! णरा णिच्चं, जागरमाणस्म वड्ढते बुद्धी । जो सुवति न सो सुहितो, जो जग्गति सो मया सुहितो ।। --निशीथभाष्य ५६०३ मनुष्यो ! सदा जागते रहो, जागनेवाले की बुद्धि मदा वर्धमान रहती है । जो सोता, वह सुखी नहीं होता, जाग्रत रहने वाला ही सदा सुखी रहता है। २६. सवति सुवंतस्स सुयं, संकियं खलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सयं, थिर-परिचितमप्पमत्तस्स ।। -निशीथभाष्य ५३०४
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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