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________________ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं १८. न नाणमित्तण कजनिप्फत्ती। -आव०नि० ११५१ जान लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती। १६. जाणतोऽवि य तरिउ,काइयजोगं न जुजइ नईए। मो बुज्झइ सोएणं एवं नाणी चरणहीणो।। । -आव०नि० ११५४ तैरना जानते हुए भी यदि कोई जल-प्रवाह मे कूदकर काय चेष्टा न करे, हाथ-पांव न हिलाए तो वह प्रवाह में डूब जाता है । धर्म को जानते हुए भी यदि कोई उस पर आचरण न करे तो वह संसार सागर को कैसे तैर सकेगा? निच्छयमवलंबंता, निच्छयतो निच्छयं अयाणंता । नासंति चरणकरणं बाहिरकरणालसा केइ ।। -ओनि० ७६१ जो निश्चय-दृष्टि के आलम्बन का आग्रह तो रखते हैं, परन्तु वस्तुतः उसके सम्बन्ध में कुछ जानते-बूझते नहीं है । वे सदाचार की व्यवहार-साधना के प्रति उदासीन हो जाते है और इस प्रकार सदाचार को ही मूलत: नष्ट कर डालते है । २१. सुचिरं पि अच्छमाणो वेरुलियो कायणियो मीसे । न य उवेड कायभावं, पाहन्नगुणेण नियएण ॥ -ओधनि० ७७२ वैडूर्यरत्न काच की मणियों में कितने ही लम्बे समय तक क्यों न मिला रहे, वह अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण रत्न ही रहता है, कभी कांच नही होता। (सदाचारी-उत्तमपुरुष का जीवन भी ऐसा ही होता है)।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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