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________________ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं गर्दन काटनेवाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हानि दुराचार में प्रवृत्त अपना ही स्वय का आत्मा कर सकता १०. अंगाणं किं सारो? आयारो। --आचारांग नियुक्ति १७ जिनवाणी (अंग-साहित्य) का सार क्या है ? 'आचार' । ११. सारो परूवणाए चरणं, तस्स वि य होइ निव्वाणं । -आचारांग नि० १७ प्ररूपणा का सार है-आचरण ! आचरण का सार है-निर्वाण ! १२. चरण गुणविप्पहीणो, बुड्डइ सुबहुपि जाणंतो। -आव०नि० ६७ जो साधक चारित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी ससार-समुद्र में डूब जाता है । १३. सुबहु पि सुयमहीयं, किं काही, चरणविप्पहीणस्स ? अन्धस्स जह पलित्ता, दीव सयसहस्सकोडी वि ।। -आव०नि०१८ शास्त्रों का बहुत-सा अध्ययन भी चारित्रहीन के लिए किस काम का ? क्या करोड़ो दीपक जला देने पर भी अन्धं को कोई प्रकाश मिल सकता है ? १४. अप्पं पि सूयमहीयं पयासयं होइ चरणजुत्तस्स । इक्को वि जह पईवो सचक्खुअस्सा पयासेइ ।। - आव०नि० ६६ शास्त्र का थोड़ा-सा अध्ययन भी सच्चरित्र साधक के लिए प्रकाश देनेवाला होता है । जिसकी आंखें खुली है, उसको एक दीपक भी काफी प्रकाश दे देता है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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