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________________ २६ १, सत्संग सवणे नाणे य विन्नाणे पच्चक्खाणे य संज मे | अण्णहए तवे व वोदाणे अकिरिया सिद्धी || -भगवती २५ सत्सग से धर्म-श्रवण, धर्म-श्रवण से तत्त्वज्ञान, तत्त्व ज्ञान से विज्ञान ( विशिष्ट तत्वज्ञान), विज्ञान से प्रत्याख्यान – सांसारिक पदार्थों से विरक्ति, प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनाश्रव - नवीन कर्म का अभाव, अनाश्रव से तप, तप से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश, पूर्वबद्ध कर्मनाश से निष्कर्मतासर्व - था कर्मरहित स्थिति और निष्कर्मता से सिद्धि अर्थात मुक्ति प्राप्त होती है। कुज्जा साहूहि संथवं । --दशवेकालिक ८।५३ हमेशा साधुजनों के साथ ही संस्तव = सम्पर्क रखना चाहिए। धुनोति दवथु स्वान्तात्तनोत्यानंदधुं परम् । धिनोति च मनोवृत्तिमहो साधु-समागमः । - आदिपुराण ९।१६० साधु-पुरुषों का समागम मन से सताप को दूर करता है, आनन्द की वृद्धि करता है और चित्तवृत्ति को संतोष देता है । ८६
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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