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________________ १९ १. २. ४. ५. इच्छा हु आगाससमा अणंतिया । लोभ - उत्तराध्ययन ६४८ इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं- असीम हैं । लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोसं वयणाए । - आचारांग २।३।१५।२ लोभ का प्रसंग आने पर व्यक्ति असत्य का आश्रय ले लेता है । माइ लुप्पइ बाले । - सूत्रकृतांग १।१।१।४ 'यह मेरा है - वह मेरा है' - इस ममत्व - बुद्धि के कारण ही बालजीव (मूर्खप्राणी) विलुप्त होते हैं—संसार में भटकते हैं। सीहं जहा व कुणिमेणं, निब्भयमेग चरंति पासेणं । - सूत्रकृतांग १|४|११८ निर्भय अकेला विचरनेवाला सिंह भी मांस के लोभ से जाल में फंस जाता है । ( वैसे ही आसक्तिवश मनुष्य भी ) । अन्ने हरन्ति तं वित्तं कम्मी कम्मेहि किच्चती । - सूत्र कृतांग १।६।४ यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा लेते है, और संग्रही को अपने पाप कर्मों का दुष्फल भोगना पड़ता है । ७०
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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