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________________ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं ५. मायाविजएणं अज्जवं जणयइ।। -उत्तराध्ययन २६६६ माया को जीत लेने से ऋजुता (सरल-भाव) प्राप्त होती है । सच्चाण सहस्साण वि, माया एक्कावि णासेदि । -भगवती-आराधना १३८४ एक माया (कपट)-हजारों सत्यों का नाश कर डालती है। ७. माई अवन्नवाई, किदिवसियं भावणं कुब्वइ । -बृहत्कल्पभाष्य १३०२ जो मायावी है और सत्पुरुषों की निन्दा करता है, वह अपने लिए किल्विषिक भावना (पापयोनि की स्थिति) पैदा करता ८. मायामोसं वड्ढई लोभदोसा । -उत्तराध्ययन३२।३० माया- मृषावाद लोभ के दोषों को बढ़ाता है। ६. खङ्गधारा मधुलिप्तां, विद्धि मायामृषां ततः । -हिंगुलप्रकरण मायायुक्त मृषा को मधुलिप्त तलवार की धार के समान समझो । माया तैर्यगयोनस्य । –तत्वार्थसूत्र ६।२७ माया तिर्यचयोनि को देनेवाली है । (तिर्यच माया के कारण ही बांके होकर चलते हैं ।) ११, भुवनं वञ्चयमाना, वंचयन्ति स्वमेव हि। -उपदेशप्रासाद १०.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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