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________________ ७६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य उद्यान मे, तीसरा उद्यान के बाहर एव चौथा मुनि नगर के वहिर्भूभाग मे ही रुक गया था । हिम ऋतु का समय था। रात गहरी होती गई । जान लेवा शीत लहर चारो मुनियो की सुकोमल देह को कपकपा रही थी । महान् कष्टसहिष्णु चारो शात स्थिर खडे थे । अत्यधिक शैत्य के कारण गुफा द्वार स्थित मुनि का प्रथम प्रहर में, उद्यान स्थित मुनि का द्वितीय प्रहर में, उद्यान वहिस्थित मुनि का तृतीय प्रहर मे एव नगर के बहिर्भू भाग मे खडे मुनि का रात्रि के चतुर्थ प्रहर मे देहान्त हो गया । क्रमश चार प्रहर मे चारो मुनियो के स्वर्गवास होने का कारण एक स्थान से दूसरे स्थान पर शैत्य का प्रावल्य ही था। गिरि गुफा का स्थान सबसे अधिक शीत-प्रधान था और सबसे कम शीत- प्रधान स्थान था नगर का वहिर्भू भाग । अपनी प्रतिज्ञा मे दृढ रहकर चारो मुनियो ने (शीत) कष्ट-सहिष्णुता का अनन्य आदर्श उपस्थित किया । सयम-सूर्य आचार्य सभूतविजय के सतीर्थ्य आचार्य भद्रबाहु सकलागम पारगामी, दशाश्रुतस्कध आदि छेद सूत्रो के उद्धारक एव महाप्राण ध्यान के विशिष्ट साधक थे । उनका ४५ वर्ष का गृहस्थ जीवन, १७ वर्ष तक सामान्य अवस्था मे साधु पर्याय पालन एव १४ वर्ष तक युग-प्रधान पद वहन का काल था । उनकी सर्वायु ७६ वर्ष की थी। बारह वर्ष तक उन्होने महाप्राण ध्यान की साधना की थी । जिनशासन को सफल नेतृत्व एव श्रुत-सम्पदा का अमूल्य अनुदान देकर श्रुतकेवल आचार्य भद्रबाहु वीर निर्वाण १७० (वि० पू० ३०० ) मे स्वर्ग को प्राप्त हुए । उन्ही के साथ अर्थ- वाचना की दृष्टि से श्रुतकेवली का विच्छेद हो गया । आधार-स्थल १ "तम्मिय काले वारसवरिसो दुक्कालो उवट्टितो । सजता इतो इतो य समुद्दतीरे गच्छित्ता पुणरवि 'पाडिलपुत्ते' मिलिता । तेसि अण्णस्स उद्देसो, अण्णस्स खड, एव सघाडितेहि एक्कारसअगाणि सघातिताणि दिट्टिवादो नत्थि । 'नेपाल' वत्तिणीए य भद्दवाहुसामी अच्छति चोद्दस्सब्वी, तेसि सघेण पत्थवितो सघाडओ 'दिट्टिवाद' वाएहि त्ति । गतो, निवेदित सघकज्ज । तते भणति दुक्कालनिमित्त महापाण पविट्टोमि तो न जाति वायण दातु । पडिनियत्तेहि सघस्स अक्खात । तेहि अण्णोवि सघाडओ विसज्जितो, जो सघस्स आण अतिक्कमति तस्स को दडो । तो अबखाई उग्घाडिज्जइ । ते भगति मा उघडे पेसेह मेहावी, सत्त पडिपुच्छ्गाणि देमि ।" I (आवश्यक चूर्ण, भाग २, पत्ताक १८७ ) -२ ताभ्यामेत्य तथाख्याते श्रीसघोऽपि प्रसादभाक् । प्राहिणोत्स्थूलभद्रादिसाधु पञ्चशती तत ॥७०॥ (परिशिष्ट पर्व, सर्ग ९)
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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