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________________ ७० जन धम क प्रभावक आचाय अप्पट्टे आउत्तो, परमठे सुठ्ठ दाइ उज्जुत्तो। न वि ह वायरियम्बो, अहपि नवि वायरिस्सामि ॥ ३५ ॥ "आत्महितार्थ में आयुक्त, परमार्थ मे प्रवृत्त मैं वाचना ग्रहणार्थ आने वाले श्रमण सघ के कार्य मे बाधा उत्पन्न नही करुगा, वे भी मेरे कार्य मे विघ्न न बने। पारियकाउसग्गो, भत्तद्वितो व अहव सेज्जाए। नितो व अइतो वा, एव में वायण दाह ॥ ३६ ।। -~-कायोत्सर्गसम्पन्न कर मिक्षार्थ आते-जाते समय और निशा मे शयन-काल से पूर्व उन्हे वाचना प्रदान करता रहूगा। श्रमणो ने 'वाढम्' कहकर आचार्य भद्रवाह के निर्देश को स्वीकार किया और उन्हें वन्दन कर वे वहा से चले, सघ को सवाद सुनाया, इससे मुनिजनो को प्रसन्नता हुई। ___ महामेधावी, उद्यमवन्त, स्थूलभद्र प्रमुख ५०० श्रमण संघ का आदेश प्राप्त कर आचार्य भद्रवाहु के पास दृष्टिवाद वाचना ग्रहण करने के लिए पहुचे। आचार्य भद्रबाहु प्रतिदिन उन्हें सात वाचनाए प्रदान करते थे। एक वाचना भिक्षाचर्या से आते समय, तीन वाचनाए विकाल वेला में और तीन वाचनाए प्रतिक्रमण के वाद रात्रिकाल मे प्रदान करते थे। दृष्टिवाद का गहण बहुत कठिन था। वाचना प्रदान का क्रम बहुत मद गति से चल रहा था। मेधावी मुनियो का धैर्य भी डोल उठा। एक-एक कर ४६६ शिक्षार्थी मुनि वाचना क्रम को छोड़कर चले गए। स्थूलभद्र मुनि यथार्थ मे ही उचित पान थे। उनकी धृति अगाध थी। स्थिर योग था। वे एक निष्ठा से अध्ययन में लगे रहे। उन्हें कभी एक पद कभी अधं पद मीखने को मिलता। पर वे निराश नही हुए । आठ वर्ष में उन्होंने आठ पूर्वो का अध्ययन कर लिया। ___आठ वर्ष की लम्बी अवधि मे आचार्य भद्रबाहु एव स्थूलभद्र के बीच अध्ययन के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार के वार्तालाप का उल्लेख उपलब्ध नहीं है। आचार्य भद्रबाहु की साधना का काल सम्पन्नप्राय था। उस समय एक दिन आचार्य भद्रबाहु ने स्थूलभद्र से कहा-"विनेय. तुम्हे माधुकरी प्रवृत्ति एव स्वाध्याय योग मे किसी प्रकार का क्लेश तो नही होता?" __ मार्य स्थूलभद्र विनम्र होकर बोले-"भगवन् । मुझे अपनी प्रवृत्ति मे कोई कठिनाई नहीं है। मैं पूर्ण स्वस्थमना अध्ययन मै रत है । आपसे मैं एक प्रश्न पूछता हू-मैंने आठ वर्षों में कितना अध्ययन किया है और कितना अवशिष्ट रहा है?" प्रश्न के समाधान मे भद्रबाहु ने कहा-"मुने । सर्षप मान ग्रहण किया है मेरु जितना ज्ञान अवशिष्ट है। दृष्टिवाद के अगाध ज्ञानसागर से अभी तक विन्दु मान ले पाए हो।" आर्य स्थूलभद्र ने निवेदन किया-"प्रभो । मैं अगाध ज्ञान की सूचना पाकर
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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