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________________ ७. जिनशासन-शिरोमणि आचार्य भद्रवाह जिनशासन-शिरोमणि श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु उस युग की डगमगाती आस्थाओ के सुदृढ आलम्बन बने । वे यशस्वी आचार्य यशोभद्र के शिष्य थे। चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे । उनका जन्म वी० नि०६४ (वि० पू० ३७६) मे हुआ। पैतालिस वर्ष की अवस्था मे सयम लिया और आचार्य सभूत विजय के बाद वी० नि० १५६ (वि० पू० ३१४) मे उन्होंने आचार्य पद को अलकृत किया। इस समय उनकी अवस्था बासठ वर्ष की थी। भगवान महावीर के वे अप्टम पट्टधर थे। श्रुतकेवली की परपरा मे उनका क्रम पाचवा था। अर्थ की दृष्टि से वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। जैन शासन को वीर निर्वाण की द्वितीय शताब्दी के मध्य दुष्काल मे भयकर वात्याचक्र से जूझना पड़ा था। उचित भिक्षा के अभाव मे अनेक श्रुतसम्पन्न मुनि काल-कवलित हो गए। भद्रबाहु के अतिरिक्त कोई भी चौदह पूर्व का ज्ञाता नहीं बचा था। वे उस समय नेपाल की पहाडियो मे महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। सघ को इससे गभीर चिन्ता हुई। आगमनिधि की सुरक्षा के लिए श्रमण सघाटक नेपाल पहुचा। करबद्ध होकर श्रमणो ने भद्रवाहु से प्रार्थना की। "सघ का निवेदन है-आप वहा पधार कर मुनिजनो को दृष्टिवाद की ज्ञानराशि से लाभान्वित करे।" भद्रवाहु ने अपनी साधना मे विक्षेप समझते हुए इसे अस्वीकार कर दिया। तित्थोगालिय के अनुमार श्रुत प्रदान हेतु श्रमणो की प्रार्थना पर आचार्य होते हुए भी सघ के दायित्व से उदासीन होकर आचार्य भद्रवाह निरपेक्ष स्वरो मे बोलते है सो भणति एव भणिए असिठ्ठ फिलिट्ठएण वयणेण न हु ता अह समत्थो इति में वायण दाउ ॥२८॥ अप्पट्टे आउत्तस्स मज्झ किं वायणाए कायन्व एव च भणिय मेत्ता रोसस्स वस गया साहू ॥२६॥ -श्रमणो मेरा आयुष्य काल कम रह गया है । इतने कम समय मे अतिक्लिष्ट दृष्टिवाद की वाचना देने मे मै असमर्थ हूँ। आत्महितार्थ मैं समग्र भावेन अपने
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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