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________________ ६. संयम-सूर्य आचार्य सम्भूतविजय सयम श्रुतनिधि आचार्य सम्भूतविजय भगवान् महावीर के पंष्ठ पट्टधर थे। श्रुतकेवली की परम्परा में वे चतुर्थ श्रुतकेवली ये। उनका जन्म माठर गोत्र मे हुआ। उत्कट पैराग्य के साथ ४२ वर्ष की अवस्था में उन्होने दीक्षा ग्रहण की। उनका जन्म वी०नि० ६६ (वि० पू०४०४), दीक्षा वी० नि० १०८ (वि० पू० ३६२) है। आचार्य यशोभद्र के वे सफल उत्तराधिकारी थे। ___ श्रमणो की शोभा आचार्य से और आचार्य की शोभा श्रमणो मे होती है। जिम सघ मे तपस्वी श्रुतसम्पन्न श्रमण होते हैं वह मघ तेजस्वी होता है एव सघनायक धर्म की प्रभावना के कार्य में अधिक सक्षम होते है। आचार्य मम्भूतविजय के सघ मे श्रेष्ठ श्रमण सम्पदा थी। श्रुतमम्पन्न आचार्य भद्रबाहु उनके गुरुभ्राता श्रमण थे। घोर अभिग्रहधारी श्रमण भी उनके शिष्य परिवार में कई थे। एक वार चार विशिष्ट माधक मुनि आचार्य सम्भूतविजय के पास आए। एक ने कुए की पाल पर, दूसरे ने सर्प की वावी पर, तीसरे ने मिह की गुफा मे तप पूर्वक चातुर्माम करने का घोर अभिग्रह धारण किया और अपने लक्ष्य की ओर वे प्रस्थित हुए। आर्य स्थूलभद्र ने वह चातुर्मास पूर्व परिचिता गणिका कोशा की चित्रशाला मे किया। चातुर्मास की सम्पन्नता पर चारो मुनि लौटे । आचार्य सम्भूतविजय ने प्रथम तीन मुनियो का सम्मान 'दुष्क्रिया के साधक' का सम्बोधन देकर किया था। श्रमण स्थूलभद्र के आगमन पर स्वय आचार्य सम्भून विजय सातआठ पैर सामने गए और 'महादुष्कर क्रिया के साधक' का सम्बोधन देकर उन्हे विशेष सम्मान प्रदान किया। स्वर्गापम चित्रशाला मे सुखपूर्वक चातुर्मास सम्पन्न करने वाले श्रमण स्थूलभद्र के प्रति 'महादुष्कर क्रिया के साधक' जैसा आदरसूचक सम्बोधन सुनकर तीनो 'घोर अभियहधारी मुनियो के मानस मे प्रतिस्पर्धा का प्रवल भाव जागृत हुआ। उन्होने मन ही मन सोचा-अमात्य-पुत्र होने के कारण आचार्य सम्भूतविजय ने 'पट्रम भोजी' मुनि स्थूलभद्र को इतना सम्मान प्रदान किया है ।' सरस भोजन करने से महादुष्कर साधना निष्पन्न हो सकती है तो कोई भी साधक इस साधना मे सफल हो सकता है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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