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________________ श्रुत-शार्दूल आचार्य शय्यम्भव ५५ की ध्वनि के आधार पर मनक रखा गया। भट्ट- पत्नी ने मनक का अत्यन्त स्नेह से पालन किया। बालक आठ वर्ष का हुआ । उसने अपनी मा से पूछा - "जननी । मेरे पिता का नाम क्या है ?" भट्ट- पत्नी ने पुत्र के प्रश्न पर समग्र पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया और उसे बताया- "तुम्हारे पिता जैन मुनि बन गये है । पितृ-दर्शन की भावना वालक मे जगी । माता का आदेश ले वह स्वय भट्ट की खोज मे निकला । पिता-पुत्र का चम्पा मे अचानक मिलन हुआ । अपनी मुखाकृति से मिलती मनक की मुखमुद्रा पर आचार्य शय्यम्भव की दृष्टि केन्द्रित हो गयी । अज्ञात स्नेह हृदय मे उमड पडा । उन्होने बालक से नाम- गाव आदि के विषय में पूछा । अपना परिचय देता हुआ मनक बोला- "मेरे पिता आचार्य शय्यम्भव मुनि कहा है ? आप उन्हे जानते है ?" बालक के मुह से अपना नाम सुनकर शय्यम्भव ने पुत्र को पहचान लिया और अपने को आचार्य शय्यम्भव का अभिन्न मित्र बताते हुए उसे अध्यात्म बोध दिया । वाल्यकाल के सरल मानस मे सम्कारी का ग्रहण बहुत शीघ्र होता है । आचार्य शय्यम्भव का प्रेरणा-भरा उपदेश सुन मनक प्रभावित हुआ और आठ वर्ष की अवस्था मे उनके पास मुनि वन गया । आचार्य शय्यम्भव हस्तरेखा के जानकार थे । मनक का हाथ देखने से उन्हे लगा, बालक का आयुष्य बहुत कम रह गया है । समग्र शास्त्रों का अध्ययन करना इसके लिए सभव नही है ।" अपश्चिमो दशपूर्वी श्रुतसार समुद्धरेत् । चतुर्दश पूर्वधर पुन केनापि हेतुना । । ८३ ॥ (परिशिष्ट पर्व, मर्ग ५ ) अपश्चिम दशपूर्वी एव चतुर्दश पूर्वी विशेष परिस्थिति मे ही पूर्वो से आगमनिर्यूहण का कार्य करते है । आचार्य शय्यम्भव चतुर्दश पूर्वधर थे । उन्होने अल्पायुष्क मुनि मनक के लिए आत्म-प्रवाद से दशर्वकालिक सूत्र का निर्यूहण किया ।' वीर निर्वाण के अस्सी वर्ष बाद इस महत्त्वपूर्ण सूत्र की रचना हुई । इस सूत्र के दश अध्ययन हैं । इसमे मुनि-जीवन की आचार सहिता का निरूपण है । यह सूत्र उत्तरवर्ती नवीन सावको के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है । छह माम वीते। मुनि मनक का स्वर्गवास हो गया । शय्यम्भव श्रुतधर आचार्य थे, पर वीतराग नही बने थे । पुत्रस्नेह उभर आया । उनकी आखें मनक मोह से गीली हो गईं । यशोभद्र आदि मुनियो ने उनसे खिन्नता का कारण पूछा। आचार्य शय्यम्भव ने बताया- "यह मेरा ससार पक्षीय पुत्र था । पुत्र मोह ने मुझे विह्वल कर दिया है । यह बात पहले श्रमणो के द्वारा जान लिए जाने पर आचार्य - पुत्र समझकर कोई इससे परिचर्या नही करवाता और यह सेवा-धर्म के लाभ से वञ्चित रह
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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