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________________ ४. श्रुत-शार्दूल आचार्य शय्यम्भव श्रुतसम्पन्न आचार्य शय्यम्भव पहले अहकारी विद्वान् थे। राजगृह-निवासी वत्सगोत्रीय ब्राह्मण परिवार मे उनका जन्म वी० नि० ३६ (वि० पू० ४३४) मे हुआ । वेद और वेदाग दर्शन के वे विशिष्टं ज्ञाता थे।। उद्भट विद्वान् शय्यम्भव जैन शासन के सवल विरोधी थे । जैन धर्म के नाम से उनकी आखो मे अगार वरसते थे। प्रभव के मम्पर्क मे आकर शय्यम्भव वी० नि० ६४ (वि० पू० ४०६) मे जैन मुनि बन गए थे। निर्ग्रन्थ धर्म के प्रवल विरोधी, प्रचण्ड क्रोधी, प्रकाण्ड विद्वान् शय्यम्भव को आचार्य प्रभव के निकट लाने का कार्य श्रमण युगल ने किया था। यह इतिहास की विरल घटना है। आचार्य का सवसे वडा दायित्व भावी आचार्य का निर्णय करना है। इस महत्त्वपूर्ण दायित्व की चिन्ता आचार्य सुधर्मा और जम्बू को नही करनी पड़ी थी। सुधर्मा के सामने जम्बू और जम्बू के सामने प्रभव जैसे योग्य व्यक्ति थे। आचार्य प्रभव का पदारोहण ६४ वर्ष की अवस्था मे हुआ था। उनके जीवन का यह सन्ध्या काल था। पश्चिम यामिनी मे एक बार आचार्य प्रभव ने सोचा-मेरे वाद गणभार वाहक कौन होगा? उन्होने श्रमण संघ, श्रावक संघ एव जैन सघ का क्रमश अवलोकन किया। गणभार वहन योग्य कोई भी व्यक्ति उनके दृष्टिगत नही हुआ। उनका ध्यान यज्ञनिष्ठ ब्राह्मण विद्वान् शय्यम्भव पर केन्द्रित हुआ। वे नेतृत्व कला में सर्वथा समर्थ प्रतीत हो रहे थे पर उनके सामने जैन दर्शन की बात करना सकट का सकेतक था। प्रभव संक्षम आचार्य थे। वे चर्चा-प्रसग से प्रतिद्वन्द्वी शय्यम्भव की जैन धर्म के प्रति प्रभावित कर सकते थे। पर उस पर्वत से कौन टकराये ? शय्यम्भव के नाम से ही हर व्यक्ति के पैर कापते थे। धर्म-सघहित की भावना से प्रेरित होकर युगल श्रमण इस कार्य के लिए प्रस्तुत हुए । आचार्य प्रभव के आदेशानुसार विद्वान् शय्यम्भव के यक्षवाट मे गए, उन्होने द्वार पर उपस्थित होकर धर्मलाभ कहा । वहा श्रमणो का घोर अपमान हुआ और उन्हे बाहर निकालने का
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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