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________________ आशीर्वचन जैन धर्म अपनी मौलिकता और वैज्ञानिकता के कारण अपने अस्तित्व को एक शाश्वत धर्म के रूप मे मभिव्यक्ति दे रहा है । भगवान महावीर इस युग के अन्तिम तीर्थकर थे। उनके बाद आचार्यों की एक बहुत लम्बी शृखला कडी से काडी जोडती रही है। सच मानायं एक ममान वर्चस्व वाले नही हो सकते । नदी की धारा मे ने क्षीणता और व्यापकता आती है वैसे ही आचार्य-परपरा में उतार-चढाव आता रहा है। फिर भी उम मृगला की अविच्छिन्नता अपने आप मे एका ऐतिहानिक मूल्य है। पचीम नौ वर्षों के इतिहास का एक मर्वांगीण विवेचन महत्वपूर्ण कार्य अवश्य है पर है अमभय । फिर भी कुछ दूरदर्शी आचार्यों ने अपने ग्रन्थो में मूत्यवान ऐतिहामिक मामगो को सरक्षित कर रखा है, अन्यथा जैन धर्म के इतिहास को कोई ठोम आधार नहीं मिल पाता। पिछले कुछ वर्षों में कई स्थानो से आचार्य-परपरा के सम्बन्ध मे ग्रन्थ लिखे गए। किन्तु उनमे कही पर माम्प्रदायिकता का रगजा गया, कही पर ऐतिहासिकता अक्षुण्ण नही रही और वाही तथ्यो का मकलन व्यवस्थित रूप से नहीं हो सका। मैं बहुत वार मोचता था कि जैन धर्म के प्रभावक आचार्यों का सिलसिलेवार अध्ययन प्रस्तुत किया जाए तो इतिहास-पाठको को अच्छी सामग्री उपलब्ध हो सकती है। भगवान् महावीर को पचीसवी निर्वाण शताब्दी के प्रसग पर मैंने अपने धर्म-सघ को साहित्य-सृजन की विशेष प्रेरणा दी। उसी क्रम में साध्वी सघमित्रा ने यह काम अपने हाथ मे लिया। हमारे धर्मसंघ की यह स्पष्ट नीति है कि हमे साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर व्यापक दृष्टिकोण से काम करना है। प्रस्तुत लेखन मे भी इस दृष्टिकोण को वरावर ध्यान मे रखा गया है। इसके लिए साध्वी संघमित्रा ने अनेक ग्रन्थो का अवलोकन किया और निष्ठा एव एकाग्रता के साथ अपने काम को आगे वढाया। दशाब्दियो पूर्व तक इतिहास मे साहित्य-सृजन के क्षेत्र मे मुनिजन अग्रणी रहे हैं। साध्वियो द्वारा लिखित साहित्य की कोई उल्लेखनीय धारा नहीं है। इन
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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