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________________ ज्योतिर्धाम आचार्य जम्बू ४५ अगारकारक, शिलाजतु वानर, जात्यारव-किशोर सोल्लक, त्रिसुहृद्, ललिताग कुमार इन आठ कथाओ के माध्यम से क्रमश पत्नियो के मन का समाधान किया। जम्बू के प्रत्येक स्वर मे अन्तर्मुखता की लहर उठ रही थी। कामिनियो के कामवाण जम्बू को पराभूत करने मे निष्फल रहे। वनिताओ का विकार भाव उसके चित्त को तथा चतुर चोरो का दल उसके वित्त को हरण न कर सका। प्रत्युत जम्बू द्वारा प्रस्तुत अध्यात्मचर्चा से मृगनयनी आठो पत्नियो के मानस का भी अन्धकार मिट गया। वासनाशक्ति क्षीण हो गई। वे जम्बू के साथ दीक्षित होने को तैयार हो गयी। आगे से मागे वढती हुई वैराग्य की सवल तरगो ने सारे वातावरण को बदल दिया। ऋषभदत्त, धारिणी, आठो पत्नियो के माता-पिता और पाच सौ चोरो का एक सबल दल भी सयम-साधना के पथ पर बढ़ने के लिए उत्सुक बना। श्रेष्ठी कुमार जम्बू ५२७ व्यक्तियो के साथ वी० नि०१ (वि० पू० ४६९) मे आचार्य सुधर्मा के पास दीक्षित हुआ। आचार्य पद पर आसीन होते ही आचार्य सुधर्मा को इतने विशाल परिवार के साथ जम्बू जैसे योग्य व्यक्ति का मिल जाना वहुत ही शुभ-सूचक रहा। आगम की अधिकाश रचना जम्बू के प्रिय सम्बोधन से प्रारम्भ हुई। "जम्बू । सर्वज्ञ श्री वीतराग भगवान् महावीर से मैंने ऐसा सुना है। आचार्य सुधर्मा का यह वाक्य आगम साहित्य मे अत्यन्त विश्रुत है। __आचार्य जम्बू कुशाग्र बुद्धि के स्वामी थे। वे अपनी सर्वग्राही एव सद्य ग्राही प्रतिभा के द्वारा आचार्य सुधर्मा के अगाध ज्ञानसिन्धु को अगस्त्य ऋपि की तरह पी गए। ____समग्र सूतार्थज्ञाता, विश्रुतकीर्ति, छत्तीस मुनि-गुणो के धारक जम्बू को आचार्य सुधर्मा ने अपने पद पर आरुढ किया। छत्तीस वर्ष की अवस्था मे उन्हें केवल ज्ञान की उपलब्धि हुई। आचार्य पदारोहण के समय जम्बू की अवस्था २८ वर्ष की थी। पिता अपना वैभव पुत्रो को सौपकर जाता है, आचार्य सुधर्मा इसी प्रकार अपनी सर्वज्ञत्व सम्पदा जम्बू को समर्पित कर गए। अपूर्व ज्ञानराशि आचार्य जम्बू का आश्रय पाकर मुस्करा उठी। जम्बू महान् समर्थ आचार्य थे । इनके समय तक धर्म सघ मे कोई भेदरेखा नही उभरी थी। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो परम्परा मुधर्मा और जम्बू को समान सम्मान प्रदान करती है । इस समय तक विकास का कोई भी द्वार अवरुद्ध नही था। पाच सौ सत्ताईस व्यक्तियो के साथ दीक्षित होने वाले आचार्य जम्बू चरम शरीरी थे एव अन्तिम सर्वज्ञ थे। वे सोलह वर्ष तक गृहस्थ जीवन मे रहे । साधु
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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