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________________ आचार्यों के काल का सक्षिप्त सिंहावलोकन २५ दीक्षा स्वीकार कर मुनि-जीवन मे प्रवेश पाया। सर्वत्र लोकागच्छ की चर्चा प्रारभ हो गई। लोकाशाह का लोकागच्छ के शिशुकाल मे ही वी० नि० २०११ (वि० स० १५४१) मे स्वर्गवास हो गया था। अत इनके गच्छ का सगठन सुदृढ नहीं हो पाया। स्वस्थ नेतृत्व के अभाव में सघ व्यवस्थाए छिन्न-भिन्न होनी प्रारम्भ हो गई। ____कई विद्वानो के अभिमत से लोकागच्छ के आठ पट्टधर लोकाशाह की नीति का सम्यक् अनुगमन करते रहे। तदनतर परस्पर सौहार्द और एकसूत्रता की कमी के कारण सगठन की जडें खोखली हो गई। लोकागच्छ के सामने एक विकट परिस्थिति पैदा हो गई। धर्मसकट की इस घडी मे ऋषिलवजी, धर्मसिंह जी एव धर्मदास जी जैसे क्रियोद्धारक आचार्यों का अभ्युदय हुआ। उन्होने साधुजीवन की मर्यादाम का दृढता से अनुगमन किया। लोकाशाह की धर्मक्रान्ति को प्रवल वेग दिया एव स्थानकवासी सम्प्रदाय की व्यवस्थित नीव डाली। पाच सौ वर्षों के इतिहास को अपने में समाहित किए हुए यह स्थानकवासी परम्परा विभिन्न शाखाओ और उपशाखाओ मे विभक्त है। इस परम्परा का स्थानकवासी नाम अर्वाचीन है, इसका पूर्व नाम साधुमार्गी था। आचार्य धर्मदास जी के निन्यानवे शिप्य थे। आचार्य धर्मदास जी का स्वर्गवास होते ही उनका शिष्य समुदाय बाईस भागो मे विभक्त हो गया। इससे आचार्य धर्मदास जी की परम्परा से वाईस शाखाओ का जन्म हुआ। और उनकी प्रसिद्धि 'वाईम टोला' नाम से हुई। आज यह सम्प्रदाय 'स्थानकवासी' नाम से अधिक विश्रुत है। समय के लम्बे अन्तराल मे इनमे से अधिकाश शाखाओ का आज लोप हो गया है। नयी शाखाओ का उद्भव भी हुआ है। विभिन्न शाखाओ को सगठित करने के उद्देश्य से विक्रम की इक्कीसवी सदी के प्रथम दशक मे स्थानकवासी मुनियो का बृहद् श्रमण सम्मेलन हुआ। यह सम्मेलन 'सादडी सम्मेलन' के नाम से प्रसिद्ध है। इस अवसर पर सौहार्दपूर्ण विचार विनिमय के वातावरण मे भिन्न-भिन्न शाखाओ के आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक मुनिजनो ने आचार्य आत्माराम को प्रमुख पद पर चुना और उनके नेतृत्व मे अधिकाश स्थानकवासी सम्प्रदायो ने अपना सहज समर्पण कर दिया । इस सगठित सघ का नाम श्री वर्धमान स्थानक-वासी जैन श्रमण सघ हुआ। स्थानकवासी परम्परा की दूसरी शाखा 'साधुमार्गी' के नाम से प्रसिद्ध है। वह श्रमण सघ के साथ नहीं है। गोडल सम्प्रदाय, लीवडी सम्प्रदाय और आठकोटि सम्प्रदाय ये तीनो ही स्थानकवासी परम्परा की शाखाए है । गोडल और लीवडी सम्प्रदाय सौराष्ट्र मे है तथा आठकोटि सम्प्रदाय कच्छ मे है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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