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________________ ३८६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में साधु-साध्वियो को प्रेषित करने का प्रथम श्रेय उन्हे है। पूर्वाचार्यों के समय मे तेरापथ धर्म सघ के मुनियो का मुख्य विहरण-स्थल राजस्थान था। मध्य प्रदेश की यात्रा भी उस समय सुदूर यात्रा मानी जाती थी। ____ आचार्य श्री कालगणी सक्षम व्यक्तित्व के धनी थे। एक बार सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डा. हर्मन जेकोबी ने उनके दर्शन किए। डा० हर्मन जेकोबी अनेक भापाओ के विज्ञ विद्वान थे और जैन दर्शन के गम्भीर अध्येता थे। तेरापय धर्म सघ की एकात्मकता ने उन्हे अत्यधिक प्रभावित किया। कालगणी के सामने उन्होंने अपनी अन्तर जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए कहा-"अहिंमा, अपरिग्रह के सन्देशवाहक जैन तीर्थकर मास भक्षण करते है। यह बात मेरे अन्तर्मन ने कभी स्वीकार नहीं की थी, पर आचाराग का अनुवाद करते समय 'मस वा मच्छ वा' पाठ देखकर मेरी प्राचीन धारणा उलट गयी।" ___आचार्य श्री कालगणी ने 'भगवती' आदि के मागमिक आधार पर चूर्णिकारो तथा टीकाकारो का ससदर्भ कथन प्रस्तुत करते हुए 'मस वा मच्छ वा पाठ का विवेचन किया और पन्नवणा सूत्र मे आए हुए वनस्पति के साथ इस पाठ का उद्धरण देते हुए बताया-"मस वा मच्छ वा' नाम वनस्पति-विणेष से सवधित है।" आचार्य श्री कालगणी से प्रामाणिक आधार पाकर डाहर्मन जैकोबी की भ्राति दूर हो गयी और वह परम मन्तुष्ट होकर लौटा । जूनागढ की सभा मे एक वक्तव्य मे आचार्य श्री कालूगणी की सन्निधि का वर्णन करते हुए उन्होने कहा"मैं अपनी इस यात्रा में भगवान महावीर की विशुद्ध परम्परा के वाहक श्रमण और श्रमणियो को देख पाया हू। तेरापथ धर्म सघ के आचार्य कालूगणी से मुझे 'मस वा मच्छ वा' पाठ का सम्यक् अर्थबोध हुआ है और इससे मेरी भ्रात धारणा का निराकरण हो गया है।" डा० हर्मन जेकोबी जैसे विद्वान् को प्रभावित कर देना जैन दर्शन का अतिशय प्रभावनाकारक कार्य था जो आचार्य श्री कालूगणी के द्वारा सभव हो सका। विविध गुणो का समवाय आचार्य श्री कालगणी का जीवन था। वे विनम्र होते हुए भी स्वाभिमानी थे । पापभीर होते हुए भी अभय थे। अनुशासन की प्रतिपालना मे दृढ होते हुए भी सौम्य स्वभावी थे। आगमो के प्रति अगाध आस्थाशील होते हुए भी प्रगतिगामी विचारो के धनी थे और जैन धर्म प्रभावना मे सतत प्रयत्नशील थे। उनका स्वर्गवास गगापुर, मेवाड मे वी०नि० २४६३ (वि० १९९३) मे भाद्रव शुक्ला ६ को हुआ। प्रभावक आचार्यों की परम्परा मे उनका नाम सदा स्मरणीय रहेगा।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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